Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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२. सुधर्मा स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी भगवान महावीर के पंचम गणधर हैं जबकि गौतम स्वामी प्रथम गणधर थे। प्रत्येक साधक गणधर नहीं बन सकता; क्योंकि गणधर एक लब्धि (occult power) होती है। इस लब्धि का प्रगटीकरण तीर्थंकर के पादमूल में श्रमण-दीक्षा ग्रहण करते ही हो जाता है, इससे पहले नहीं। इस लब्धि के प्रगटीकरण होते ही, अन्तर के मानसिक और बौद्धिक बन्द कपाट उद्घाटित हो जाते हैं। नभी तो तीर्थंकर के श्रीमुख से त्रिपदी (उववन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा) को सुनकर, गणधर द्वादशांगी की रचना में, समस्त श्रुत को हृदयंगम करने में सक्षम हो जाते हैं।
आर्य सुधर्मा ऐसे ही गणधर थे।
आर्य सुधर्मा का जन्म कोल्लाक सन्निवेश में हुआ। इनका गोत्र वैश्यायन था। इनके पिता धनमित्र और माता भहिला थी। इनका जन्म नक्षत्र उत्तग-फाल्गुनी था! वर्ण से ब्राह्मण थे।
ये अद्भुत प्रतिभा-संपन्न, चौदह विद्याओं में पारंगत और कर्मकांडी विद्वान थे। इनके ५00 शिष्य थे।
इनके हृदय में एक संशय था। प्राणी जैसा इस जन्म में होता है, क्या अगले जन्म में भी वैसा ही होता है अथवा उसके रूप, स्वरूप आदि में परिवर्तन हो जाता है।
इस संशय को भगवान महावीर ने मिटाया तो उसी समय इन्होंने अपने शिष्यों सहित भगवान के पाद-मूल में श्रमण-दीक्षा धारण कर ली। तत्काल ही इन्हें गणधर लब्धि प्राप्त हो गई।
इन्होंने ५० वर्ष की आय में भगवान महावीर से श्रमण संयम ग्रहण किया। ४२ वर्ष तक छद्मस्थ रहे। ३0 वर्ष तक तो भगवान महावीर की सेवा में रहे और १२ वर्ष तक भगवान के निर्वाण के बाद भी छद्मावस्था में व्यतीत किये। तदुपरान्त ९२ वर्ष की आयु में इन्हें कैवल्य की उपलब्धि हुई। आठ वर्ष केवली-पर्याय का पालन कर तथा पूरे १00 वर्ष की आयु भोगकर निर्वाण प्राप्त किया।
इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण के २० वर्ष पश्चात् गणधर सुधर्मा मुक्त हुए।
सुधर्मा स्वामी का सर्वाधिक महत्त्व इस बात में है कि इन्होंने जम्बू स्वामी को द्वादशांगी की वाचना दी। आज जो ११ अंग उपलब्ध हैं, वे सभी गणधर सुधर्मा की वाचना के हैं, इसीलिए वे सभी गणधर सुधर्मा प्रणीत कहलाते हैं।
गणधर सुधर्मा की शरीर-सम्पदा और गुण-सम्पदा का ग्रन्थों में बड़ा ही विशद और रुचिकर वर्णन हुआ है। ___ शरीर की दृष्टि से आपकी ऊँचाई ७ हाथ की थी। आपके शरीर का संहनन प्रथम-वज्रऋषभनागच संहनन और समचतुरन संस्थान था। शरीर आकार-प्रकार से सुगठित था और संतप्त स्वर्ण के समान देह की कांति थी यानी आपके शरीर की आभा अथवा वर्ण लाल रंग (सिन्दूर) मिश्रित दूध के समान था। ___आपके गुणों का वर्णन ज्ञाताधर्मकथासूत्र के प्रथम अध्ययन, सूत्र ४ में इन शब्दों द्वारा किया गया है
__अन्तकृद्दशा महिमा
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