Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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प्रभव ने जब सुना कि जम्बूकुमार को ९९ करोड़ सोनया का दहेज मिला है तो वह ललचा गया। अपने ५0) साथियों के साथ श्रेष्ठि ऋपभदत्त के घर जा पहुँचा। अपनी दोनों विद्याओं का प्रयोग किया और निश्चिन्ततापूर्वक उसके साथियों ने धन की पोटें (पोटलियाँ) वाँध ली।
तभी चमत्कार-सा हुआ। ५00 चोरों के पैर जमीन से चिपक गये। इस चमत्कार से चिन्तित होकर प्रभव इधर-उधर देखने लगा। उसने देखा--एक कक्ष में ये मन्द प्रकाश आ रहा है साथ ही उस वार्तालाप का धीमा स्वर भी सुनाई दिया। वह उस कक्ष के पास पहुंचा और कान लगा दिये।
विवाह की पहली रजनी। जम्बूकमार की नव-विवाहिता पत्नियाँ विभिन्न दृष्टान्न देकर उन्हें संसारी जीवन की ओर मोड़ने का प्रयास कर रही थीं और जम्बूकुमार भी दृष्टान्तों द्वारा ही उनके प्रयास को असफल करके संयम की सार्थकता को दृढ़ कर रहे थे!
उनका वार्तालाप सुनकर प्रभव को अपने तस्कर जीवन के प्रति घृणा उत्पन्न हुई. हृदय वैराग्य से भर गया। उसके ५00 तस्कर साथियों की भी यही दशा हुई।
जम्यूकुमार १, प्रभव १, उसके तस्कर माथी ५00. जम्बूकुमार के माता-पिता २. श्रेष्ठि-कन्याएँ और उनके माता-पिता २४, इस प्रकार दूसरे दिन प्रातः ५२८ व्यक्तियों ने सुधर्मा स्वामी के सान्निध्य में श्रामणी दीक्षा ग्रहण कर ली और तप-संयम की साधना करके आत्म-शुद्धि करने लगे। इनमें जम्बूकुमार प्रमुख थे। __ श्री जम्बू ग्वामी ने १६ वर्ष की आयु में दीक्षा ली, २0 वर्ष तक ज्ञान-ध्यान-तप-संयम की आराधना करते हुए श्रमण-पर्याय का पालन करते रहे। ३६ वर्ष की आयु में कैवल्य प्राप्त हुआ। ४४ वर्ष तक कैवल्य-पर्याय में व्यतीत किये और कुल ८) वर्ष की आयु पूर्ण कर मुक्त हो गये।
वर्तमान अवसर्पिणी काल के आप अन्तिम केवली थे।
इनकी मुक्ति के उपरान्त दस वातों का विच्छेद हो गया (१) केवलज्ञान, (२) मनःपर्यवज्ञान, (३) परमावधिज्ञान, (४) पुलाक लब्धि, (५) आहारक शरीर, (६) क्षायिक सम्यक्त्व, (७) जिनकल्प, (८) परिहार विशुद्धचारित्र, (९) सूक्ष्मसंपगय चारित्र, और (१०) यथाख्यात चाग्त्रि। पूर्वभव __ 'जंबूसामी चरित्र' आदि कथा ग्रंथों में सुधर्मा स्वामी और जंबू स्वामी के पूर्व पाँच भवों का वर्णन कग्क उनका पारस्परिक संबंध दर्शाया गया है।
(वर्तमान जन्म से पूर्व पाँचवें जन्म) प्रथम भव में सुधर्मा का नाम भवदत्त और जंबू का नाम भावदेव था। दोनों परस्पर भाई थे। भवदत्त बड़े और भावदेव छोटे। उस जन्म में भी भवदत्त ने भावदेव को धर्म का उपदेश दिया था।
इसी प्रकार यह परम्परा आगामी जन्मों में भी चलती रही और इस अन्तिम भव में सुधर्मा तथा जम्बू के रूप में प्रगट हुई तथा दोनों की मुक्ति के रूप में परिणत होकर वह प्रेम-संबंध समाप्त हुए।
पूर्वजन्मों से चले आये संबंधों के कारण जम्बू स्वामी की सुधर्मा स्वामी के प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति रही। सुधर्मा के भी जंवू स्वामी अन्तेवासी (अतिप्रिय और सदा साथ रहने वाले शिष्य) रहे।
___ अन्तकृद्दशा महिमा
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