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""अज्ज सुहम्मे नाम थेरे जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने बल-रूप-विणय-नाण-दसण-चरित्तलाघव संपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाये, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियास-मरण-भय विप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं करण-चरण-निग्गह-निच्छय-अज्जव-मद्दय-लाघव-खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंतबंभ-येय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दंसण-चरित्त प्पहाणे, ओराले, घोरे, घोरव्यये, घोर तबस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूट सरीरे, संखित्त-विउल तेउलेस्से, चोद्दस पुयी, चउनाणोवगए।
अर्थात् सुधर्मा नाम के स्थविर-जाति-संपन्न-उत्तम (उच्च कोटि के) मातृपक्ष वाले , कुल-संपन्न-निर्दोष पितृपक्ष वाले (यानी सुधर्मा के मातृ और पितृपक्ष दोनों ही उत्तम) थे. बल (मानसिक, वाचिक, कायिक शक्ति), रूप (अनुत्तर विमानवासी देवों से भी अधिक रूपवान), विनय, ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), दर्शन (सम्यग्दर्शन), चारित्र (सम्यक्चारित्र), लाघव (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ग्स, ऋद्धि, साताइन तीन गारवों से रहित) से संपन्न थे। ___ वे ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे। वे क्रोध, मान, माया, लोभ-चारों कषायों को जीतने वाले थे तथा निद्रा, परीषह पर उन्होंने विजय प्राप्त कर ली थी। जीवन की आशा और मरण के भय से मुक्त हो चुके थे। तपों और गुणों में अर्थात् अन्य तपस्वियों तथा गुणी जनों की अपेक्षा अधिक तप करने वाले तथा गुणों को धारण करने वाले होने से, प्रधान थे। करण सत्तरी, चरण सत्तरी में प्रधान, अनाचार में प्रवृत्ति न करने से निग्रह-प्रधान-उत्तम निग्रही, तत्त्व का निश्चय करने में निपुण, आर्जव-मार्दव-लाघव व कुशल, क्षमा-गुप्ति (मन-वचन-काय को गुप्त रखना)-मुक्ति (लोभरहितता) में प्रधान, विद्या (देव अधिष्ठित रोहिणी आदि विद्या), मंत्र (विभिन्न प्रकार के मंत्र), ब्रह्मचर्य, वेद (लौकिक और लोकोत्तर आगमों) में निष्णात थे। नय (विविध प्रकार के नयों के ज्ञाता), नियम (अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करने वाले) थे। सत्य-शौच के विशिष्ट ज्ञाता, उत्कृष्ट ज्ञानी-दर्शनी-चारित्री और उदार थे। परीषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि के प्रति कठोर, महाव्रतों का कठोरतापूर्वक पालन करने वाले, कठिन तपस्या करने वाले, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य-पालक, शरीर-संस्कार न करने वाले, विपुल तेजोलेश्या को अपने अन्दर संक्षिप्त करके रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि. मनःपर्यव) को धारण करने वाले थे।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि आर्य सुधर्मा कितने विशिष्ट गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट किये हुए थे।
इस शारीरिक और गुण-संपदा के कारण उनका व्यक्तित्व भव्य और प्रभावशाली था। उनका प्रवचन जन-जन को मोहित करने वाला होता था, श्रोता श्रद्धा-भक्ति से विभोर हो जाता था।
मगधेश कोणिक के उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति विभोर शब्द साक्षी दे रहे हैंसुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। सुपण्णत्ते ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। सुभासिए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे।
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अन्तकृद्दशा महिमा
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