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वनखण्ड
पूर्णभद्र चैत्य के चारों ओर सघन वनखण्ड था। उसमें विभिन्न प्रकार के फल-फूल और पत्तियों वाले छायादार वृक्ष थे । वृक्षावली इतनी सघन थी कि देखने पर काली, नीली, हरी छाया ही दृष्टिगत होती थी ।
स्पष्टीकरण - वनखण्ड को आधुनिक भाषा में उद्यान अथवा पार्क ( park ) समझना अधिक उपयुक्त होगा। जिस प्रकार आधुनिक पार्कों में मनुष्यों के चलने के लिए मार्ग होते हैं, उसी प्रकार उस वनखण्ड में अचित्त मार्ग होना चाहिए, क्योंकि साधुजन सचित्त भूमि पर पैर नहीं रखते। अतः उस वनखण्ड में अचित्त मार्ग अवश्य होंगे. चाहे वे लोगों के आने-जाने से बने हों, अथवा रथों और बैलगाड़ियों द्वारा । उन्हीं पथों पर चलकर सुधर्मा स्वामी और आर्य जम्बू पूर्णभद्र चैत्य तक पहुँच सकते हैं।
अशोक वृक्ष
उस वनखण्ड के बीचोंबीच ठीक मध्य भाग में अशोक - वृक्ष था। वह अनेक प्रकार के फल-फूलों और पत्तियों से सुशोभित था। उसकी सुगन्ध दूर तक फैली हुई थी। उसके चारों ओर अन्य विविध प्रकार के पुष्प- पादप थे।
शिलापट्टक
उस अशोक-वृक्ष के नीचे एक शिलापट्टक था । वह लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई में प्रमाणोपेत (उचित प्रमाण वाला) और चिकना था । वह अष्टकोण आकार वाला था और उसका स्पर्श कोमल था।
इस प्रकार वह दर्शनीय और वर्णनीय था ।
द्वारका नगरी
इस नगरी का विस्तृत वर्णन अन्तकृद्दशासूत्र में किया जा चुका
है।
इसका निर्माण वासुदेव श्रीकृष्ण के लिए वैश्रमण देव ने किया था। यह सभी प्रकार से समृद्ध, संपन्न, वैभवशाली थी। इसकी रचना अति सुन्दर और परकोटे बहुत सुदृढ़ थे । यह पश्चिमी समुद्र तट पर बसी हुई थी। यह उत्तर-दक्षिण में १२ योजन लम्बी और पूर्व - पश्चिम में ९ योजन चौड़ी थी । वैश्रमण देव ने समुद्र से भूमि लेकर इसका निर्माण किया था ।
'द्वार' शब्द गुजराती भाषा में वन्दरगाह (port) को भी कहते हैं । इस अर्थ में द्वारका बन्दरगाहों की नगरी थी।
इन बन्दरगाहों से पश्चिमी अरब और मध्य एशिया के देशों से अबाध समुद्री व्यापार भी द्वारका की समृद्धि का एक कारण माना जा सकता है। कृष्ण कथा के अनुसार कुछ व्यापारी समुद्र मार्ग से रत्नकंबल लेकर द्वारका आये भी थे जो बाद में स्थल मार्ग से राजगृह पहुँचे थे।
यही कारण था कि द्वारका के सभी नागरिक समृद्ध थे, निर्धन - भाग्यहीन कोई न था ।
वर्तमान में सौराष्ट्र प्रान्त में द्वारका नाम का एक कस्बा है। उससे २० मील दूर कच्छ की खाड़ी में एक टापू (भूमि का वह उठा हुआ भाग, जिसके चारों ओर जल हो ) है । वहाँ एक दूसरी द्वारका है,
अन्तकृद्दशा महिमा
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