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जो वेंट द्वारका कहलाती है। यहाँ भी कृष्ण, रुक्मिणी आदि के मन्दिर हैं। श्रद्धालु भक्त वहाँ भी दर्शनार्थ जाते हैं। ___ आधुनिक सागर-गर्भ वेत्ताओं ने पुरानी द्वारका की समुद्र-गर्भ के इसी (सौराष्ट्र-द्वारका और बेट द्वारका के मध्यवर्ती) क्षेत्र में खोज की तो उन्हें पुगनी द्वारका के ध्वंसावशेष-महल, कंगूरे आदि प्राप्त हुए हैं। अव वे समुद्र-तल से द्वारका के अवशेषों को निकालने के लिए प्रयत्नशील हैं।
जैन ग्रन्थों के अनुसार द्वारका के उत्तर-पूर्व में रैवतक पर्वत था और वह समुद्र-तट पर वसी हुई थी।
उपर्युक्त तथ्यों का अनुशीलन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि द्वारका नगरी के तीन आर समुद्र था! जैसी स्थिति आज बम्बई महानगर की है. लगभग वैसी स्थिति द्वारका नगर्ग की रही होगी।
ऐसी समृद्ध नगरी के विध्वंस के विषय में जैन मान्यता है कि वह अग्नि प्रकोप से ध्वस्त हुई और वैदिक मान्यता के अनुसार सागर में डूब गई।
कुछ लेखकों ने इन दोनों का समन्वय करते हुए कहा है--द्वारका पहले अग्नि की भेंट चढ़ी. ध्वम्न हुई और फिर सागर में समा गई।
आधुनिक प्रमाणों के अनुसार यह मत समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि द्वारका के ध्वंसावशेष सागर में मिलते हैं। अधिकांश द्वारका डूब गई, उसका कुछ भाग टापू के रूप में शेष रह गया जिसे आज वेंट द्वारका कहा जाता है।
साथ ही जैन अंग आगमों ज्ञाताधर्मकथा तथा अन्तकृद्दशा में द्वारका की अवस्थिति जो सौराष्ट्र में वताई गई है, यह तथ्य भी पूर्णतः प्रमाणित हो जाता है। रैवतक पर्वत
रैवतक पर्वत आज भी सौराष्ट्र में विद्यमान है। गिरनार पर्वत के नाम से यह आज अधिक विख्यात है। शास्त्रों एवं प्रगणों में इसके उज्जयंत, उज्ज्वल, गिग्णिाल आदि नाम भी मिलते हैं। प्राचीन समय में इसी की तलहटी में द्वारका नगरी बसी हुई थी। आज जूनागढ़ नगर बसा हुआ है।
प्राचीनकाल में इस पर्वत पर नन्दनवन था और इस वन में सुरप्रिय चैत्य था। जहाँ भगवान ठहरतं
थे।
नन्दनवन और सुप्रिय चैत्य का वर्णन पूर्णभद्र चैत्य के लगभग समान है। काकन्दी नगरी
भगवान महावीर के समय में काकन्दी नगरी बहुत समृद्ध थी। इसकी उस समय अस्थिति उत्तर भारत में थी। उस समय यहाँ गजा जितशत्रु राज्य करते थे। नगर के बाहर एक सहसाम्र वन था।
इसी नगरी की भद्रा सार्थवाही के पुत्र धन्य आदि अनेक साधकों ने भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा ग्रहण थी।
अन्तकृद्दशा महिमा
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