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इस प्रकार की विक्ति हृदय में धारण कर वह निदान करता है-“यदि मेरी तपस्या का फल हो तो आगामी जीवन में विशुद्ध मातृ-पितृ-पक्षीय उच्च कुल में जन्म लेकर श्रमणोपासक बनूँ , जीवाजीव विभक्ति का ज्ञान प्राप्त करूँ. पुण्य-पाप को पहचानें और श्रमण-श्रमणी को प्रासुक एषणीय भक्त-पान आदि हूँ।"
इस निदान की आलोचना किये बिना देह त्यागकर वह उच्च देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके उच्च कुलीन मानव बनता है। सर्वज्ञ प्रणीत धर्म सुनकर उस पर श्रद्धा करता है. श्रावक व्रतों का पालन करता है. अनशन-प्रत्याख्यान आदि भी करता है; किन्तु सकल संयम-श्रमण धर्म का पालन नहीं कर सकता।
आयु पूर्ण करके वह किसी देवलोक में देव बनता है।
मकल संयम-श्रमणत्व पालन करने की असमर्थता इस निदान का फल है। नौवाँ निदान
कोई श्रमण-श्रमणी केलिप्रज्ञप्न धर्म के अनुसार तप-संयम की यथावत् आगधना करता हुआ मनुप्य-संबंधी काम-भागों से विरक्त हो जाता है, इन्हें निस्सार मानने लगता है।
तव वह इस प्रकार का निदान करता है- मेरे तप का फल हो तो में ऐम अन्न-प्रान्त-तुच्छ-भिक्षु कुल में जन्म लूँ, जहाँ लोगों में पारम्परिक मोह कम होता है। अतः मैं प्रव्रजित होने के लिए सुविधापूर्वक गृहस्थ जीवन का त्याग कर सकूँ।"
इस निदान की आलोचना किये बिना देह त्यागकर वह देव बनता है। वहाँ का आयुप्प पूर्ण करतोय ही कुलों में जन्म लेता है। वह केवली प्रमपित धर्म सुनता है, श्रद्धा करता है. श्रावक व्रतों का पालन करता है और श्रमण-दीक्षा ग्रहण करके तप भी करता है; किन्तु मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता: किसी देवलोक में ही उत्पन्न होता है।
मुक्ति-प्राप्ति में वाधक वनना-वह इस निदान का विपाक फल है।
उपर्युक्त कथित इन नौ प्रकार के निदानों का मूल कारण गग है। प्रारम्भ के छह निदानों में काम-भोग की अभिलाषा है-काम गग है तो अन्तिम तीन निदानों में धर्म का गग है।
लकिन निदान केवल गगवश ही नहीं होता; द्वष के वशीभूत होकर भी व्यक्ति निदान करता है। द्वेषवश निदान
दुपवश निदान किसी आततायी अथवा उत्पीड़क के प्रति होता है।
जब कोई शक्तिशाली व्यक्ति किसी निर्वल की कोई अतिप्रिय वस्तु वलपूर्वक छीन लेता है. उसे प्रताड़ित करता है, निर्दयतापूर्वक मारता-पीटता है तब वह शक्तिहीन व्यक्ति इस शक्तिशाली को माग्ने अथवा विनाश करने का निदान कर लेता है और आगामी जीवन में उसका विनाश भी कर डालता है।
सभी वासुदेव इसी प्रकार के शत्रुभाव का निदान करते हैं। शास्त्रों में द्वेप-निदान के काफी उदाहरण मिलते हैं। यथा-यादव कुमारों ने जव द्वैपायन नपस्वी को
अन्नकृददशा महिमा
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