Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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वह स्त्री आयु पूर्ण कर नरक में उत्पन्न होती है और दारुण दुःखों को भोगती है। यह निदान का कटुफल है। चौथा निदान
कोई निर्ग्रन्थी (श्रमणी) केवलिप्रज्ञप्त धर्म को ही सत्य-तथ्य, आत्म-कल्याणकारी मानकर तदनुसार तप, संयम, ब्रह्मचर्य-पालन की आराधना करती है। __वह किसी उच्च कुलीन (विशुद्ध मातृ-पितृ वाले उग्रवंशी या भोगवंशी), सुन्दर, स्वरूपवान, ऐश्वर्यशाली पुरुष को देखती है।
वह मन में सोचती है-"स्त्री का जीवन दु:खमय है क्योंकि वह स्वतंत्र रूप से अकेली एक गाँव से दूसरे गाँव तक भी नहीं जा सकती। क्योंकि जिस प्रकार आम, बिजोरा, इक्षु खण्ड आदि मनुष्यों को प्रिय
और आस्वादनीय, इच्छनीय लगते हैं; इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी पुरुषों को आस्वादनीय, प्राप्त करने योग्य, इच्छित और अभिलषित होता है। इस कारण स्त्री का जीवन दुःखमय और पुरुष का जीवन सुखमय
तब वह निदान करती है-“यदि मेरे द्वारा आचरित तप का फल हो तो मैं आगामी जन्म में उच्च कुलीन पुरुष बनकर मनुष्य-संबंधी उत्तमोत्तम सुखों का भोग करूँ।"
इस निदान की आलोचना-प्रतिक्रमण न करके यदि वह श्रमणी देह-त्याग करती है तो देवगति को प्राप्त करती है। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर उच्च कुल में पुरुष रूप में उत्पन्न होती है और उत्तमोत्तम मनुष्य-संबंधी भोग उसे प्राप्त होते हैं।
धर्माचार्य आदि इसे (कृतनिदान) पुरुष को सर्वज्ञ प्रणीत धर्म सुनाते हैं; पर वह उसे सुना-अनसुना कर देता है।
वह दुर्लभबोधि होता है। आयु पूर्ण कर नरक में उत्पन्न होता है और दारुण दुःख भोगने को विवश होता है। यह निदान का कटुफल है। पाँचवाँ निदान
कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (श्रमण या श्रमणी) केवली प्ररूपित धर्म के अनुसार तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि की आराधना करता है।
गुरु-मुख से सुनकर अथवा शास्त्रों में पढ़कर देवों के सुख के प्रति आकर्षित होता है।
तब वह मन में सोचता है-“यह मनुष्य-शरीर तो मल-मूत्र, श्लेष्म आदि से दुर्गन्धित है। देवों का शरीर इन मलों से रहित होने के कारण स्वच्छ और सुगन्धित है। साथ ही देव विभिन्न रूप विकुर्वित कर अपनी और अन्य देवियों के साथ मनमानी क्रीड़ा करते हैं। चिरकाल तक भाँति-भाँति के सुख भोगते हैं। उनका आयुष्य भी दीर्घ होता है।"
तब वह निदान करता है-“मेरी तपस्या का फल हो तो मैं देव-सम्बन्धी दिव्य भोग भोगूं।"
___ अन्तकृद्दशा महिमा
४०५ .
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