________________
के प्रभाव से काम - भोगों की अभिलाषा करता है। लेकिन इसका उत्तेजक निमित्त कोई ऋद्धि-समृद्धि रूप ऐश्वर्य-सम्पन्न स्त्री-पुरुष, राजा-रानी आदि होते हैं। देवलोक का ऐश्वर्य और देव देवियों के दिव्य काम-भोगों का वर्णन भी व्यक्ति को निदान के लिए उत्तेजित कर देता है।
साथ ही कुछ ईर्ष्या का भाव भी होता है कि जैसे वह पुण्यवान पुरुष उत्कृष्ट मानुषिक तथा देवदिव्य भोगों को भोग रहा है. वैसे ही भोग में भी भोगूँ ।
निदान के प्रकार और फल
भगवान महावीर ने दशाश्रुतस्कन्ध, दसवीं दशा में निदान के नौ प्रकार अथवा भेद बताये हैं। इनका साररूप से संक्षिप्त वर्णन यहाँ किया जा रहा है।
पूर्व भूमिका
भगवान महावीर का समवसरण राजगृह नगर के बाह्य गुणशीलक उद्यान में लगा हुआ था। जन परिषद् के साथ राजा श्रेणिक तथा रानी चेलना भी भगवान के दर्शन और देशना श्रवण के लिए पूरे साज-श्रृंगार के साथ आये। उनके अति सुन्दर रूप, बहुमूल्य वस्त्रालंकार राज्य-समृद्धि आदि से प्रभावित होकर भगवान के कुछ श्रमण-श्रमणियों ने मन ही मन निदान कर लिया कि अपनी तपस्या के फलस्वरूप आगामी जन्म में हम भी ऐसे ही मनुष्य-संबंधी भोग भोगें । सर्वज्ञ भगवान से उनका यह निदान छिप न सका ।
भगवान के दर्शन - वन्दन और देशना श्रवण करने के पश्चात् परिषद् तथा राजा श्रेणिक और गनी चलना भी चली गई।
तव भगवान ने निदान और उसका दुष्फल श्रमण श्रमणियों को समझाया ।
निदान के नौ भेद हैं ।
पहला निदान
एक निर्ग्रन्थ (श्रमण), जो तप साधना, व्रत नियम का यथोचित पालन करता है, वह किसी समृद्धिशाली उच्च वंशीय राजा अथवा राजकुमार को तथा उसकी ऋद्धि-समृद्धि आदि को देखता है. तब वह काम-भोगों के प्रति आकर्षित होकर निदान करता है - " मेरे तप, नियम, ब्रह्मचर्य पालन का फल हो तो मैं भी इस राजा अथवा राजकुमार के समान आगामी जन्म में मनुष्य-सम्बन्धी उत्तम सुख भागूँ ।"
ऐसा व्यक्ति यदि आलोचना - इस निदान की आलोचना किये बिना ही शरीर त्याग करता है तो (तप तथा श्रमण-पर्याय का पालन करने के फलस्वरूप ) वह देवलोक में देव बनता है । वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके उच्च कुल में जन्म लेता है। उसे मनुष्य संबंधी सुख भोग के साधन प्राप्त होते हैं। वह उन सुखों को भोगता है।
यद्यपि उसे साधु, माता-पिता आदि सर्वज्ञ प्रणीत धर्म सुनाते हैं, लेकिन वह रुचिपूर्वक नहीं सुनता । दुर्लभवोधि हो जाता है और काम-भोगों में लिप्त रहकर आयु पूर्ण होने पर नरकगति को जाता है । वहाँ के घोर दुःखों से चिरकाल तक पीड़ित होता है ।
यह निदान का ही फल विपाक है।
अन्तकृदशा महिमा
Jain Education International
For Private Personal Use Only
४०३
www.jainelibrary.org