Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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" जीवा सोहि मणुप्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं । "
मनुष्यगति प्राप्त होने पर भी सब अनुकूल - संयोग मिलने पर ही जीव अन्तक्रिया करने में समर्थ होता
है।
● चार प्रकार की अन्तक्रिया
स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के प्रथम सूत्र में चार प्रकार की अन्तक्रियाओं का वर्णन है
चत्तारि अन्तकिरियाओ पण्णत्ताओ।
तं जहा - तत्थ खलु इमा पढमा अन्तकिरिया
अप्प कम्म पच्चायाते यावि भवति ।
सेणं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, संजम बहुले, संवर बहुले, समाहि बहुले, लूहे, तीरट्ठी, उवहाणवं दुक्खखवे तवस्सी ।
तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, णो तहप्पगारा वेयणा भवति ।
तहप्पगारे पुरिस जाते दीहेणे परियाएणं
सिज्झति, बुज्झति, मुच्चति, परिणिव्याति, सव्य दुक्खाणमंतंकरेइ,
जहा - से भरहे राया चाउरंत चक्कवट्टी ।
पढमा अन्तकिरिया ।
चार प्रकार की अन्तक्रिया बताई हैं ( होती हैं) । प्रथम अन्तक्रिया
कोई पुरुष अल्पकर्मों के साथ (पूर्वजन्म में तप आदि द्वारा विशेष रूप में कर्मों का क्षय करने के कारण अल्प कर्म शेष रह गये हों, वैसा लघुकर्मी - हलुकर्मी जीव अल्पकर्मा कहा जाता है)। मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है । वह विरक्त होने पर, मुण्ड होकर (केश एवं कषायों को लुंचित करके) घर छोड़कर अनगार रूप में प्रव्रजित होता है।
वह संयम-बहुल, संवर-बहुल' (संयम एंव संवर की साधना में विशेष रूप में उद्यत ) तथा समाधि - बहुल
१. संयम एवं संवर शब्द प्रायः समानार्थक होते हुए भी इनके स्वरूप में अंतर है । १७ प्रकार का संयम जहाँ बताया है, वहाँ संयम का स्वरूप है- पाँच इन्द्रिय, मन आदि को वश में करना तथा पृथ्वीकाय आदि षट्काय जीवों की रक्षा
करना।
संवर का स्वरूप है - अठारह प्रकार के पापस्थानों के सेवन से आत्मा को रोकना, इन्द्रिय एवं कषायनिग्रह तथा पाँच आनव द्वारों का निरोध करना
-सचित्र अर्धमागधी कोष, भाग ४, पृष्ठ ५६४, ५३४
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अन्तकृद्दशा महिमा
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