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प्रतिमा योग
步步步中
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भिक्षु (मुनि) की प्रतिमाएँ प्रतिमा का अभिप्राय
'प्रतिमा' शब्द यहाँ किसी अनुकृति, आकृति अथवा आकार-विशेष की ओर इंगित नहीं करता. जैसा कि साधारणतः समझा जाता है, अपितु प्रस्तुत सन्दर्भ में यह एक विशिष्ट अभिप्राय लिए हुए है और साधना से सम्बन्धित है। स्थानांग वृत्ति पत्र ६१ में कहा गया है
"प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेति यावत्।'
तथा .
"प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रह।"
(स्थानांग वृत्ति पत्र १८४) इन उपर्युक्त कथनों का आशय यह है कि प्रतिमा-एक विशेष प्रतिज्ञा है, व्रत विशेष है और दृढ़ संकल्प सहित (with firm resolution) एक साधना पद्धति है।
प्रतिमा है तो एक प्रकार का व्रत विशेष ही; किन्तु इसमें दृढ़ता का स्थान प्रमुख है।
साधक जव अपने स्वीकृत व्रत, नियमों, तपस्याओं में परिपक्व हो जाता है; अतिचार और स्खलनाहित व्रतों तथा तपस्याओं का पालन करने में पूर्णतः परिपक्व हो जाता है तब वह साधना के पथ पर अपने दृढ़ कदम आगे बढ़ाता है। दृढ़ संकल्पपूर्वक कुछ विशिष्ट साधनाएँ-तप आदि स्वीकार करता है, ये विशिष्ट साधनाएँ ही प्रतिमा कहलाती हैं और इन्हीं को समुच्चय रूप से प्रतिमा योग कहा जाता है।
प्रतिमाओं को धारण करने वाले साधक का संकल्प वहुत ही दृढ़ और मनोबल उच्चकोटि का होता है। वह भयंकरतम स्थिति और अति विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होता। घोर कष्टप्रद उपसर्ग-परीषह में भी इसके शरीर का एक रोम भी कम्पित नहीं होता। वह अचल पर्वत के समान अपनी साधना में अडिग रहता है। भिक्षु (मुनि) प्रतिमाएँ
श्रमण (भिक्षु) विशिष्ट साधना के लिए दृढ़ संकल्पपूर्वक नियम और अभिग्रह ग्रहण करता है। इसमें
१. भिक्षु के समान गृहस्थ साधक भी प्रतिमाओं का दृढ़तापूर्वक आराधन करता है। उसकी प्रतिमाएँ श्रावक प्रतिमाएँ
कहलाती हैं। शास्त्रों में ११ श्रावक प्रतिमाओं का वर्णन मिलता है। किन्तु यहाँ श्रमण साधकों का प्रसंग होने से श्रावक प्रतिमाओं का विवेचन नहीं किया गया है।
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अन्तकृद्दशा महिमा
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