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मनुष्यों, देवों और पशु-पक्षियों द्वारा किये गये उपसर्गों तथा परीषहों को समभाव से सहन करता है।
वह वाणी का भी पूर्ण संयम-पालन करता है। सिर्फ चार कारणों से बोलता है-(१) अन्य साथी श्रमण से वस्त्र, पात्र आदि माँगना, (२) शंका समाधान के लिए गुरुदेव अथवा ज्येष्ठ ज्ञानी साधु से प्रश्न पूछना अथवा किसी सामान्य व्यक्ति से मार्ग पूछना, (३) गुरुदेव से गोचरी आदि की आज्ञा लेना अथवा शय्यातर (स्थान के स्वामी) से स्थान की आज्ञा लेना, (४) किसी व्यक्ति द्वारा किये गये जिज्ञासा वृत्ति से धार्मिक प्रश्न का उत्तर देना। इन चार कारणों के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं बोलता, सर्वथा मौन धारण किये रहता है।
वह एक ग्राम में दो रात्रि और एक दिवस से अधिक नहीं ठहरता। भोजन की गवेषणा में भी वह कुछ कठोर नियमों का पालन करता है।
जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन वना हो, वहाँ से न लेना; गर्भिणी अथवा शिशु की माता के लिए बनाये गये भोजन में से न लेना, शिशु को स्तनपान कराती हुई स्त्री यदि उठकर आहार दे तो न लेना. आसन्न-प्रसवा स्त्री से भोजन न लेना; जिसके दोनों पैर देहली के बाहर या भीतर हों, उसके हाथों से आहार न लेना; परिचित कुल से आहार न लेना, अपरिचित कुल से आहार लेना आदि भोजन सम्बन्धी उसके नियम होते हैं।
वह दिन में एक ही बार विशिष्ट और कठोर नियमों के साथ भिक्षा के लिए जाता है। १. प्रथम प्रतिमा
उपर्युक्त नियमों का पालन करते हुए श्रमण पहली प्रतिमा की आराधना करता है। इसका कालमान एक मास है। इसमें श्रमण एक दत्ती आहार की और एक दत्ती पानी की ग्रहण करता है। दत्ती का अभिप्राय है दाता द्वारा दिये जाने वाले भोजन और पानी की अखंड धारा। २. दूसरी प्रतिमा
इसका कालमान दो मास है। उपर्युक्त सभी नियमों का पालन करते हुए इसकी आराधना की जाती है। इसमें साधक दो दत्ती आहार की और दो दत्ती पानी की ग्रहण करता है। ३. तीसरी प्रतिमा
इसका कालमान तीन मास है। इसमें साधक तीन दत्ती आहार की तथा तीन दत्ती पानी की ग्रहण करता है। साथ ही उपर्युक्त सभी नियमों का पालन करता है। ४. चौथी प्रतिमा
इसका कालमान चार मास है। इसमें साधक चार दत्ती आहार की और चार दत्ती पानी की ग्रहण करता है। उपर्युक्त नियमों का पालन इसमें भी होता है। ५. पाँचवीं प्रतिमा
इसका कालमान पाँच मास है। इसमें साधक पाँच दत्ती आहार की और पाँच दत्ती पानी की ग्रहण करने के साथ-साथ उपर्युक्त नियमों का भी पालन करता है। .३८६ .
अन्तकृद्दशा महिमा
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