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श्यामवर्णी होने पर भी वे अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक थे, अतिशय वल-वीर्य और पराक्रम से युक्त थे। ऐसे अनुपम योद्धा थे जो कभी भी किसी भी युद्ध में पाजत नहीं हुए। इनकी मेधा अनुपमय थी और नीति सदाशयी तथा धर्म से अनुस्यूत थी। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि युद्ध न हो, सर्वत्र गांति रहे। इसीलिए उन्होंने दुर्योधन को समझाया-"शान्तिहेतुर्भवेत् तात।" हे भाई ! शान्ति में ही भलाई है। लेकिन दुर्योधन की हठवादिता ही युद्ध का कारण बन गई और महाभारत युद्ध में कुरुवंश का विनाश हो गया। तीर्थंकर और वासुदेव की कार्य-शैली । प्रस्तुत प्रसंग तीर्थंकर अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण तक ही सीमित है। अतः इन दोनों को ही केन्द्र-विन्दु में रखकर इनकी कार्य-शैली को विवंचित करना ही अपक्षित है।
सभी तीर्थंकरों की (दीक्षा ग्रहण करने और कैवल्य-प्राप्ति के उपगन्न) कार्य-शैली पूर्ण अहिंसक होती है। वे दमन का मार्ग कभी नहीं अपनाते। मन और इन्द्रियों के भी दमन की बात नहीं कहत अपितु वृत्ति-प्रवृत्तियों में परिवर्तन करके मार्गान्नीकरण की प्रक्रिया सुझाते हैं। संयम-साधना और ब्रह्मचर्य-पालन द्वाग साधक को ऊर्ध्वरेता बनने का प्रोत्साहन देते हैं। वे वीतगग हैं. अनाग्रही हैं! कोई व्यक्ति संयम-साधना की भावना व्यक्त करता है तो इतना ही कहते हैं-"जहासुहं देवाणुप्पिया।''-हे सरल हृदय और भद्र परिणामी ! जिसमें तुम्हें सुख हो वैसा ही कगे।
तीर्थंकर दुष्ट व्यक्ति की भी आत्मा में भव्यता और भद्रता देखते हैं।
वैसे सत्य यह भी है कि तीर्थंकर अत्यन्त शांत परिणामी होते हैं। उनका शरीर अत्यन्न सुन्दर और शांत पुद्गल परमाणुओं से निर्मित होता है। उस शरीर की गान्न तरंगें इतनी प्रवल और वेगवी होती हैं कि उनकी धर्मसभा (समवसरण) में प्रविष्ट होते ही दुप्ट व्यक्तियों की दुष्प्रवृत्तियाँ पलायन कर जाती हैं, वैग्भाव शांत हो जाता है. मैत्री की भावनाएँ तरंगित होन लगती हैं. सर्वत्र शांति का साम्राज्य छा जाता है। इसमें वे स्वयं कुछ नहीं करते. उनकी उपस्थिति मात्र से यह सव-कुछ सहज ही घटित हो जाता है।
वे युग-प्रवर्तक हैं, मूल रूप से इस अर्थ में कि उनकी उपस्थिति में व्यक्तियों की प्रवृत्तियों का परिमार्जन तथा शुद्धीकरण होता है. उसकी आत्मा पतन से उत्थान के मार्ग पर चल पड़ती है।
इसे चाहे तीर्थंकर की कार्य-शैली कहें अथवा उनकी उपति का प्रभाव या अतिशय मानें।
लेकिन वासुदेव की कार्य-शैली इससे भिन्न होती है। वे शक्ति के बल पर समाज में सुव्यवस्था का संचार करते हैं। अपने वचन का आग्रह भी होता है। साम नीति द्वाग व्यक्ति को समझाते हैं लेकिन जब वह नहीं मानता तो दण्डनीति का आश्रय लंकर उसे दण्ड भी देते हैं।
दुष्कृतों का विनाश करने के लिए वे दमन का, हिंसा का. युद्ध का आश्रय भी लेते हैं। उनका उद्देश्य होता है-प्रत्येक क्षेत्र में सुव्यवस्था और संगठन। इसके लिए भी आवश्यक साधन होते हैं, उनके प्रयोग में हिचकिचाते नहीं।
अन्तकृदशा महिमा
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