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तनाव मिट जाते हैं, चित्त शांत हो जाता है और वह शांतिपूर्वक प्रगाढ़ निद्रा लेता है। सुख की नींद लेने से प्रातः तरोताजा होकर उठता है। उसका दिन आलस्यरहित व्यतीत होता है। सामान्य संथारा ___ यह यावज्जीवन संथारा होता है और अन्तिम साँस तक चलता है। संलेखना के साथ जहाँ-जहाँ संथारा शब्द प्रयुक्त होता है वहाँ यह शब्द यावज्जीवन संथारे को ही द्योतित करता है। इसे ग्रहण करने की विधि भी जो आज से २,५00 वर्ष पहले थी वही आज भी है। ___ साधक सर्वप्रथम किसी एकान्त-शांत स्थान की गवषणा करता है। तदुपरान्त उस प्रासुक और निर्जन्तु स्थान पर दर्भ का बिछौना बिछाता है। उस पर पूर्वाभिमुख होकर अवस्थित होता है और फिर शरीर आदि से ममत्व तोड़ता है, पापस्थानों का त्याग करता है, भांड उपकरणों के प्रति आसक्ति का त्याग करके भक्त-प्रत्याख्यान-अनशन, संथारे की प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेता है। संथारे के लाभ
साधक (मानव) के लिए संथारा सदैव ही लाभप्रद होता है, हानि तो इससे कम होती ही नहीं। आत्मा के लिए संथारा उस रसायन के समान है जो रोग होता है तो शरीर के उस रोग को मिटाता है और यदि रोग नहीं होता तो शरीर को बलवान, वीर्ययुक्त और स्फूर्तिमय बनाता है। संथारा भी उसी प्रकार आत्म-शक्ति, आत्म-जागृति और आत्म-वीर्य को वृद्धिंगत करता है।
यह सत्य है कि संथारा में अनशन अवश्य होता है लेकिन वह भूखा रहकर मृत्यु की ओर गतिशील होना नहीं है अपितु कर्मनिर्जरा द्वारा आत्म-शुद्धि की एक सक्षम प्रक्रिया है।
जहाँ तक क्षुधा-पिपासा वेदना का प्रश्न है, इसके लिए योग की एक पद्धति समझ लेनी चाहिए। योग ग्रन्थों में वर्णित एक अनुभूत सत्य है कि कंठ कूप में ध्यान करने से क्षुधा-वेदना नहीं सताती। उसी प्रकार संथारा का साधक जब अहर्निश ध्यान-साधना करता है तब ध्यान की लगातार तीव्र धारा से उसकी क्षुधा-पिपासा स्वयमेव ही शांत हो जाती है, शरीर व्याधियों की उसे अनुभूति ही नहीं होती और यदि होती भी है तो इतनी अल्प मात्रा में कि उसे विचलित नहीं कर पाती।
संक्षेप में संथारा शांति और समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग है। जिस प्रकार सर्प को अपनी केंचुली उतारने में अथवा मानव को अपने जीर्ण-शीर्ण फटे-पुराने वस्त्रों को उतारने में कष्ट नहीं होता अपितु सुख की अनुभूति ही होती है। उसी प्रकार संथारा की साधना से साधक को आनन्द की प्राप्ति होती है।
अन्तकृद्दशा महिमा
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