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वे अतिशय पुण्यशाली, प्रभावशाली और बलवान थे। स्वस्थ समाज नीति, राजनीति आदि की उन्होंने स्थापना की। द्वारका-जैसी समृद्ध नगरी, जो अलकापुरी के समान सुन्दर थी, उसका निर्माण उन्हीं के पुण्य का फल था।
श्रीकृष्ण अत्यन्त विनयी और माता-पिता के भक्त थे। गुणों का आदर करना उनका सहज स्वभाव था। अवगुणों में गुण और अनेक बुराइयों में एक भलाई खोज ही लेते थे। सड़ी हुई कुतिया के शरीर से आती हुई दुर्गन्ध को नजरअन्दाज कर उनकी दृष्टि उसके मोती-जैसे चमकते हुए दाँतों पर ही टिकी।
उनके लिए डेल कारनेगी के ये शब्द सटीक हैं“Even the most wickeds are not so virtueless that we cannot find any good quality in them.” (ईविन दि मोस्ट विकेड्स आर नॉट सो व लैस दैट वी कैननॉट फाइण्ड एनी गुड क्वालिटी इन दैम) -बुरे से बुरे प्राणी भी इतने गुणहीन नहीं होते कि हम इनमें कोई अच्छा गुण न खोज सकें। अवश्य खोज सकते हैं, बस आवश्यकता है-गुणग्राहक दृष्टि की और यह दृष्टि श्रीकृष्ण के पास थी।
श्रीकृष्ण वचनवीर ही नहीं थे, निर्धनों-असहायों आदि के प्रति केवल शाब्दिक-मौखिक सहानुभूति ही प्रदर्शित नहीं करते थे; अपितु कार्यरूप में परिणत करके दिखाते थे, स्वयं आगे बढ़कर सहायता करते थे। त्रिखण्डाधीश होते हुए भी इन्होंने स्वयं अपने हाथ से जर्जर वृद्ध की ईंट उठाकर उसके घर में रखी। उनकी इस प्रक्रियात्मक सहायता के परिणामस्वरूप सारी ईंटें उस वृद्ध के मकान में पहुँच गईं।
गुणी व्यक्तियों के लिए उनका आदरभाव श्रद्धा-भक्ति से समन्वित था। इस विषय में आयु का विचार उनके लिये नगण्य था। यद्यपि तीर्थंकर अरिष्टनेमि आयु में इनसे छोटे थे; लेकिन जब उन्होंने कैवल्य प्राप्त कर लिया तो उनके समक्ष वे श्रद्धा से झुक गये, भक्तिपूर्वक उनकी पर्युपासना करने लगे। तीर्थंकर अरिष्टनेमि के वचनों पर उनका दृढ़ विश्वास था। उनकी स्पष्ट मान्यता थी-"नान्यथावादिनो जिनाः।" -जिन भगवान-तीर्थंकर अन्यथावादी नहीं होते, उनके वचन सत्य और सत्यपूत होते हैं।
श्रीकृष्ण का एक अन्यतम गुण धर्मवीरता है। वैदिक परम्परा में तो इनका जन्म ही धर्मसंस्थापनार्थायधर्म की स्थापना के लिए माना गया है। लेकिन जैनधर्म में उन्हें धर्म-सहायक स्वीकार किया गया है। कृतनिदान होने के कारण वे स्वयं तो संयम-चारित्र साधना नहीं कर पाते; किन्तु अन्य धार्मिक मानवों के लिए सहायक अवश्य बनते हैं।
उनकी उद्घोषणा से प्रेरित होकर अनेक व्यक्ति चारित्र-पथ पर आरूढ़ होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
प्रस्तुत अन्तकृद्दशासूत्र के प्रथम पाँच वर्गों में जिन ५१ अन्तकृत् केवलियों का वर्णन उपलब्ध होता है, उनमें इनके पुत्र भी हैं, भाई (गजसुकुमाल) भी हैं और उनकी रानियाँ तथा पटरानियाँ भी हैं।
इनके अतिरिक्त ढंढण मुनि, केतुमंजरी आदि ने भी दीक्षा ग्रहण करके मुक्ति पाई। थावच्चापुत्र की दीक्षा में तो श्रीकृष्ण का पूरा योगदान था।
इस प्रकार वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपनी उद्घोषणाओं, प्रेरणाओं और सहयोग से धर्मशासन के प्रचार-प्रसार में सहायक बनकर तीर्थंकर नाम-गोत्र का उपार्जन करके महान् पुण्य का लाभ प्राप्त किया।
अन्तकृद्दशा महिमा
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