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वासुदेव की यह विशेषता है कि कृतनिदान होने के कारण वे संयम-साधना नहीं कर सकते। जैन और वैदिक-दोनों ही परम्पराएँ इस विषय में एकमत जान पड़ती हैं। दोनों ही परम्पराओं में श्रीकृष्ण संयम-साधना नहीं करते। हाँ, कारण अलग-अलग हैं। जैन परम्पग उन्हें कृतनिदान मानती है और वैदिक परम्परा विष्णु का सोलह कला पूर्ण अवतार अथवा पूर्ण ब्रह्म : ऐसी दशा में इन्हें संयम माधना की आवश्यकता ही क्या है ?
जैन परम्परा के तीर्थंकर, अवतार नहीं हैं। जैन परम्परा भी अवतारवादी नहीं है. इसके अनुसार भगवान अवतार नहीं लेते; अपितु उत्तारवादी हैं। जीव क्रमशः आत्म-विशुद्धि करता हुआ तप-साधना नधा जीवमात्र की कल्याण भावना रखता हुआ तीर्थंका नाम-गोत्र का उपार्जन करता है तथा तीर्थंकर पदवी प्राप्त करता है।
इतना अवश्य है कि तीर्थंकर अतिशयों. प्रातिहार्यों से युक्त और सुशोभित होने हैं।
यही तीर्थंकरों की सामान्य सर्वज्ञों से विशेषता होती है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण की समकालीनता
कुछ बुद्धिजीवी इस तथ्य में सन्देह प्रगट करते हैं और कहते हैं कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण समकालीन नहीं थे। इनकी यह धारणा भ्रमपूर्ण है। दोनों की समकालीनता के साक्ष्य वैदिक और जैन दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध होते हैं।
अष्टादश पुराणकार महर्षि वेदव्यास ने स्वरचित हरिवंशपुराण में अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण का चचंग भाई (cousin) बताया है। आधुनिक काल के विद्वान् प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता गय चौधरी ने अपने ग्रन्थ 'वैष्णव धर्म के प्राचीन इतिहास' में भी यही मत स्थिर किया है।
विचारणीय तथ्य है कि क्या परस्पर चचेरे भाई समकालीन नहीं होते ? इसका सर्वमान्य उत्तर एक ही है कि वे निश्चित रूप से समकालीन ही होते हैं। इसमें शंका कग्ना व्यर्थ है।
जैन परम्परा में तीर्थंकर अरिष्टनेमि समुद्रविजय के पुत्र हैं और श्रीकृष्ण वसुदेव जी के, जो समुद्रविजय के सबसे छोटे भाई हैं। वैदिक परम्परा में श्रीकृष्ण के पिता का नाम तो वसुदेव ही है; किन्तु अरिष्टनेमि के पिता का नाम चित्रक दिया गया है। संभव है. समुद्रविजय का अपग्नाम चित्रक हो। लेकिन इस नाम से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि दोनों ही परम्पगएँ अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण-दोनों को परस्पर चचेरा भाई (cousin) स्वीकार करती हैं और इस तथ्य से यह स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि दोनों ही समकालीन थे। तीर्थंकर अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता
कुछ समय पूर्व तक भगवान अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता संदिग्ध थी। भारतीय और पाश्चात्य विद्वान उन्हें मात्र पौराणिक पुरुष मानते थे, ऐतिहासिक पुरुष नहीं। इसी प्रकार की धारणा श्रीकृष्ण और द्वारका नगरी के विषय में भी थी।
अन्तकृदशा महिमा
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