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क्षेत्र के चक्रवर्ती सनत्कुमार की रूप-संपदा अत्युत्तम है। उसका वर्णन जिह्वा से नहीं किया जा सकता। आँखों से देखकर ही अनुभव किया जा सकता है।"
एक मानव की यह प्रशंसा दो देवों को अतिशयोक्ति लगी। वे मानव-लोक में आये और ब्राह्मणों का रूप धारण कर चक्रवर्ती के महल में आये। उस समय चक्रवर्ती व्यायामशाला में व्यायाम कर रहे थे। ब्राह्मण वेशधारी देवों ने उन्हें देखकर कहा-“राजन् ! आपके रूप-सौन्दर्य की जैसी चर्चा सुनी थी, उससे भी अधिक सुन्दर है आपकी शारीरिक शोभा।"
चक्रवर्ती भी अपनी सुन्दरता की अनुपमता को जानते थे, उन्हें अपनी रूप-शोभा का अभिमान भी था। गर्व में भरकर बोले-"भूदेवो ! अभी तो मेरा तन धूलि धूसरित है। स्नान आदि तथा वस्त्राभूषणों से सज्जित होकर जब राजसभा में सिंहासन पर बैह् तब मेरे रूप को देखना। उस समय मेरा रूप पूरी तरह शोभित होगा।"
ब्राह्मण स्वीकृतिसूचक सिर हिलाकर चले आये।
चक्रवर्ती स्नान आदि से निवृत्त हुए, बहुमूल्य वस्त्राभूषण धारण किये और राजमुकुट से सुशोभित होकर सिंहासन पर आ विराजे। दोनों ब्राह्मण भी आ गये। चक्रवर्ती ने गर्वस्फीत स्वर में कहा-'ब्राह्मणो ! अब तुम मेरे रूप को देखो और बताओ मेरा शरीर-सौन्दर्य तुम्हें कैसा लगता
___ दोनों ब्राह्मणों ने निःश्वास फेंककर कहा-“राजन् ! क्या कहें ? कुछ कहा नहीं जाता। अपराध क्षमा करें। अब आपके शरीर-सौन्दर्य में वह बात नहीं रही। आपका शरीर सोलह रोगों का घर बन गया है। विश्वास न हो तो थूककर देख लें। आपके थूक में कीड़े कुलबुलाते हुए दृष्टिगोचर होंगे।"
चक्रवर्ती ने ऐसा ही किया। ब्राह्मणों का कथन सत्य था। उसका अपनी रूप-शोभा का घमंड चूर-चूर हो गया। शरीर को क्षण-विनश्वर जानकर वैराग्य धारण कर लिया, प्रवजित हो गये।
शरीर में रोगों ने प्रवेश तो कर ही लिया था रूखा-सूखा भोजन और कठोर तपश्चरण से रोग फूट पड़े। असह्य वेदना होने लगी। लेकिन मुनि सनत्कुमार समभाव से उस वेदना को सहते हुए, शरीर से निरपेक्ष रहकर तप-साधना से आत्म-विशुद्धि में लीन रहे।
देवराज ने अपनी देवसभा से पुनः मुनि की तितिक्षा की प्रशंसा करते हुए कहा-“मुनि सनत्कुमार की तितिक्षा धन्य है। यद्यपि तपःसाधना से उन्हें अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। यदि वे चाहें तो अपने शरीर को निरोग कर सकते हैं। किन्तु शरीर से निरपेक्ष रहकर , असह्य वेदना भोगते हुए भी वे तप-साधना में तल्लीन हैं।"
वही दोनों देव पुनः परीक्षा के लिए आये। वैद्यों का रूप रखकर मुनिश्री के पास पहुँचे, औषधोपचार का बहुत आग्रह किया तब मुनि ने कहा-“वैद्यो ! शरीर-रोगों की मुझे कोई चिन्ता नहीं। मैं तो कर्म-रोग को मिटाने में लगा हुआ हूँ। शरीर के रोगों को तो मैं जब चाहूँ तभी मिटा सकता हूँ।"
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अन्तकृद्दशा महिमा
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