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क्रोध में बेभान होकर उसने समीप के तालाब से गीली मिट्टी लेकर मुनि के सिर पर पाल बाँधी, एक चिता से अंगारे लेकर मुनि के सिर पर रख दिये और चला आया ।
अंगारों के दाह से मुनि का नवमुण्डित सिर आग पर रखी हांडी के समान तपने लगा, उनका रक्त उबलने लगा। अत्यधिक वेदना और पीड़ा थी । लेकिन इस असह्य वेदना में भी मुनि गजसुकुमाल अपने समत्व में स्थिर रहे। अपकारी के प्रति भी दुर्भाव न किया, उसे भी क्षमा कर दिया ।
क्षमावतार मुनि गजसुकुमाल आत्म ध्यान में लीन रहे । उनके कर्मों के सभी बन्धन टूट गये। वे मुक्त हो गये।
इस प्रकार गजसुकुमाल ने मात्र आठ प्रहर की संयम - पर्याय में ही भवान्त कर दिया, अन्तक्रिया में सफल हुए।
यह दूसरी अन्तक्रिया का उदाहरण है।
महावेदना : दीर्घकालीन संयम - पर्याय
तृतीय अन्तक्रिया
तीसरी प्रकार की अन्तक्रिया में "महाकम्मपच्चायाते यावि भवति दीहेणं परियाएणं सिज्झति । " अर्थात् वह अत्यधिक सघन कर्मों के साथ जन्म लेता है और दीर्घ समय की संयम - साधना में घोर वेदना भोगता है तथा सभी कर्मों का नाश कर देता है ।
इसमें कर्मों की सघनता भी होती है और दीक्षा - पर्याय भी लम्बी होती है। दीर्घकाल तक वेदना का अनुभव तथा कष्ट, परीषह आदि समभाव से सहते हुए वह कर्मों के प्रबल बंधन को क्षीण कर पाता है। इसका उदाहरण है–‘“जहा - से सणकुमारे राया चाउरन्त चक्कवट्टी । " - यथा चक्रवर्ती सनत्कुमार ने दीर्घकाल तक संयम - पर्याय का पालन किया, विविध प्रकार के कष्ट भोगे और सभी कर्मों का अन्त कर मुक्त हुए।
सनत्कुमार चक्रवर्ती
चक्रवर्ती सनत्कुमार का उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र के १८वें अध्ययन तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में प्राप्त होता है। आप इस अवसर्पिणी काल के चतुर्थ चक्रवर्ती सम्राट् हैं।
हस्तिनापुर नगर में महाराज अश्वसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सहदेवी था। महारानी ने एक रात चौदह महास्वप्न देखे और गर्भकाल पूरा होने पर एक सर्वांग सुन्दर, अतिशय शरीर - सौन्दर्यसंपन्न शिशु को जन्म दिया। उसका नाम सनत्कुमार रखा गया। काल - क्रमानुसार सनत्कुमार युवा होते-होते सभी पुरुषोचित कलाओं में निष्णात हो गया ।
पिता के स्वर्गवास के उपरान्त सनत्कुमार हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर आसीन हुए । पुण्य-बल और भुज-बल के प्रताप से सभी राजाओं को विजित कर चक्रवर्ती की उपाधि धारण की।
सनत्कुमार चक्रवर्ती का शरीर - सौन्दर्य अनुपम था, रूप-संपदा असाधारण थी। एक बार प्रथम स्वर्ग के देवाधिपति सौधर्म इन्द्र ने उनके शरीर सौष्ठव की प्रशंसा करते हुए अपनी देव - सभा में कहा - "भरत
अन्तकृदशा महिमा
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