Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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है, किन्तु उस पर कठोर तपश्चरण, उग्र परीषह-सहन एवं निर्मल ध्यान की ऐसी तीव्र चोट भी पड़ती है कि बहुत अल्प समय में ही कर्मों के सघन बंधन क्षीण हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में बताया है-'जहा से गयसुकुमाले अणगारे।"
जिस प्रकार उन गजसुकुमाल अणगार ने एक अहोरात्रि (अष्ट-प्रहर) की संयम-साधना में ही पुराने बँधे हुए प्रचुर कर्मों को भोगकर क्षय किया और मोक्ष प्राप्त हुए।
गजसुकुमाल गजसुकुमाल का वर्णन अन्तकृद्दशासूत्र में आता है। वसुदेव राजा की रानी देवकी वासुदेव श्रीकृष्ण की माता थी। कृष्ण आदि पुत्रों का जन्म कंस की कारागार में होने से देवकी ने एक भी शिशु को अपनी गोद में नहीं खिलाया। सब सुख प्राप्त होते हुए भी देवकी पुत्र को गोद में खिलाने की ममता-वत्सलता के कारण सदा उदास रहती थी। माता की इच्छा पूर्ण करने के लिए मातृभक्त वासुदेव श्रीकृष्ण ने हरिणगमैषी देव की सहायता से अपना एक छोटा भाई माँगा! देवकी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। शिशु अत्यन्त कोमल होने के कारण उसका नाम रखा-गजसुकुमाल । बड़े ही प्यार-दुलार से उसका लालन-पालन हुआ।
द्वारिका में एक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार रहता था, जिसका मुखिया था-सोमिल ! उसकी पत्नी सोमश्री थी तथा एक अत्यन्त रूपवती सुकुमार कन्या थी-सोमा। __ एक बार भगवान अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी में पधारे। वासुदेव श्रीकृष्ण प्रभु के दर्शन करने गये। मार्ग में अनेक कन्याओं के झुंड में सोमा को खेलते हुए देखा, वासुदेव को यह कन्या अपने प्रिय लघु बन्धु गजसुकुमाल के लिए बहुत ही उपयुक्त जोड़ी लगी। कन्या के पिता सोमिल विप्र को बुलाकर वासुदेव ने अपने छोटे भाई के लिए उसकी मँगनी कर ली। सोमिल तो धन्य-धन्य हो उठा। ‘सोमा' वासुदेव के कन्याओं के अन्तःपुर में पहुंच गई। वहाँ राजकन्याओं के साथ उसका लालन-पालन होने लगा। ___ वासुदेव श्रीकृष्ण भगवान अरिष्टनेमि की धर्मसभा में पहुँचे, साथ में गजसुकुमाल भी थे। भगवान का धर्म-प्रवचन सुनते ही गजसुकुमाल प्रतिबुद्ध हो गए। माता-पिता से बहुत आग्रह करके दीक्षा लेने की स्वीकृति माँगी। देवकी ने कहा-"पुत्र ! तेरे विना तो मैं एक दिन भी जी नहीं सकूँगी।" वासुदेव श्रीकृष्ण ने भी उसे अत्यन्त लाड़-प्यार से समझाया-"प्रव्रज्या की बात छोड़ दे, मैं तुझे द्वारिका का राजा बनाऊँगा. संसार के सब सुख तुझे प्राप्त होंगे।" परन्तु विरक्त हृदय गजसुकुमाल ने किसी की बात नहीं सुनी, अपने निश्चय पर दृढ़ रहे और कोमल कच्ची वय में ही भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेने को आतुर हो गये। उनके अत्याग्रह पर माता-पिता तथा वासुदेव श्रीकृष्ण को झुकना पड़ा। गजसुकुमाल का दीक्षा-समारोह (अभिनिष्क्रमण-महोत्सव) मनाया गया।
गजसुकुमाल भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हो गये। जिस दिन दीक्षित हुए उसी दिन तीसरे प्रहर में भगवान से बारहवीं भिक्षु-प्रतिमा आराधना की आज्ञा लेकर महाकाल श्मशान में पहुँचे और प्रतिमा धारण कर कायोत्सर्ग में लीन खड़े हो गये।
संध्या के समय सोमिल समिधा आदि यज्ञ सामग्री लेकर श्मशान के पास होकर लौट रहा था। उसने गजसुकुमाल मुनि को मुण्डित सिर कायोत्सर्ग में लीन खड़ा देखा तो उसे क्रोध आ गया-“इसे यदि श्रमण ही बनना था तो मेरी निर्दोष पुत्री सोमा का जीवन क्यों बरबाद किया ?"
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अन्तकृदशा महिमा
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