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होता है। वह रूक्ष-स्नेह रागरहित होकर, तीर का अर्थी-संसार-समुद्र को पार करने का इच्छुक. उपधानवान् (श्रुताराधनापूर्वक तप करने वाला), दुःख को खपाने वाला तथा तपस्वी होता है। १ उसका न तो तथा प्रकार का घोर तप होता है, न तथा प्रकार की घोर वेदना होती है।
इस प्रकार का पुरुष-दीर्घकालीन मुनि-पर्याय के द्वारा दीर्घ संयम तक मुनि धर्म का पालन करता हुआ, सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त और परिनिवृत्त होता है। वह सब दुःखों का अन्त करता है।
इसका उदाहरण है-चक्रवर्ती भरत ! यह पहली अन्तक्रिया है-अल्पकर्म , अल्पवेदना तथा दीर्घकालीन मुनि-पर्याय वाले पुरुष की अन्तक्रिया।
चार प्रकार की अन्तक्रिया के उदाहरण
भरत चक्रवर्ती ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत षट्खंड के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् थे। उनकी ऋद्धि वैभव का कोई पार नहीं था। मनुष्य ही क्या, देवता भी उनकी आज्ञा का पालन करते थे। फिर भी राज्य-संपदा के प्रति, सांसारिक सुखों के प्रति उनके मन में अनासक्ति और उदासीनता थी। जिस प्रकार एक धाय माता दूसरों के बालकों का पालन-पोषण करती है. किन्तु मन में वह उन्हें अपना पुत्र नहीं मानती, न स्वयं को उनकी 'माँ' मानने की भूल करती है, उसी प्रकार चक्रवर्ती भरत षट्खण्ड राज्य का पालन-पोषण करते हुए भी स्वयं को उसका स्वामी नहीं मानते थे, वे मात्र राज्य के 'रक्षक' बनकर प्रजा का पुत्रवत् पालन करना अपना कर्तव्य समझते थे। इतनी निस्पृहता थी, भरत चक्रवर्ती के मन में।
कहते हैं, एक बार भगवान ऋषभदेव ने प्रवचन में कहा-“इस अवसर्पिणी काल में माता मरुदेवी प्रथम सिद्ध हुई, मैं प्रथम तीर्थंकर हूँ और भरत भी चरम-शरीरी है। इसी भव में मोक्ष जायेगा, वह अल्पकर्मी
भगवान के इस कथन पर एक व्यक्ति को शंका हुई कि इतने बड़े विशाल साम्राज्य का स्वामी तो अल्पकर्मा है और मैं अत्यन्त गरीबी में गुजारा करने वाला महाकर्मा ? भगवान भी कैसे पक्षपाती हैं ?
चक्रवर्ती भरत को उस व्यक्ति की शंका का पता चला, उन्होंने उसे बुलाया और कहा-“यह तेल से लबालब भरा एक कटोरा हथेली पर रखकर समूची अयोध्या नगरी की परिक्रमा करके आओ, ध्यान रखना यदि एक बूंद भी तेल गिर गया तो इसका दण्ड-मृत्युदण्ड होगा।"
वह गरीब व्यक्ति तेल का भग कटोग लेकर चला। उसके पीछे पहरेदार चल रहे थे, नगर में कहीं नृत्य-गायन, कहीं हास्य-विनोद हो रहे थे, कहीं बाजारों में दुकानें सजी थीं, परन्तु उस चहल-पहल व रंगारंग में उसकी दृष्टि सिर्फ तेल के कटोरे पर ही टिकी रही, वह उसी तेल के कटोरे पर एकाग्र मन हुआ नगर में घूमता हुआ आया।
भरत चक्रवर्ती ने पूछा-"भ्रात ! तुमने शहर में क्या देखा?" १. समाधिस्तु प्रशमवाहिता-(टीका) चित्त की प्रशमधारा-शान्त और प्रसन्न मनःस्थिति समाधि है। सम-अधि अर्थात् मानसिक
चिन्ताएँ जहाँ 'सम' हो गई हैं, विषमता समाप्त होकर समता का अनुभव करना समाधि है।
अन्तकृद्दशा महिमा
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