Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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विवेचन
जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को कृष्ण वासुदेव कहा जाता है । वासुदेव शब्द का व्याकरण के आधार पर अर्थ होता है - " वसुदेवस्य अपत्यं पुमान् वासुदेवः ।" वसुदेव के पुत्र को वासुदेव कहते हैं । कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था, अतः इनको वासुदेव कहते हैं । वासुदेव शब्द सामान्य रूप से कृष्ण का वाचक है - कृष्ण का दूसरा नाम है ।
परन्तु वासुदेव का उक्त अर्थ प्रचलित होने पर भी यह शब्द जैन-दर्शन का पारिभाषिक शब्द बन गया है । अतएव सभी अर्धचक्रवर्तियों के लिए वासुदेव शब्द का प्रयोग किया जाता है । जैन परम्परा के अनुसार इस अवसर्पिणी में वासुदेव नौ हुए हैं - १. त्रिपृष्ठ, २ . द्विपृष्ठ, ३. स्वयंभू, ४. पुरुषोत्तम, ५. पुरुषसिंह, ६. पुरुषपुण्डरीक, ७. दत्त, ८. नारायण (लक्ष्मण), ९. कृष्ण । इनमें कृष्ण अंतिम वासुदेव हैं ।
वासुदेव का पारिभाषिक अर्थ है- जो सात रत्नों, छह खण्डों में से तीन खण्डों का अधिपति हो तथा जो अनेकविध ऋद्धियों से सम्पन्न हो । जैन- दृष्टि से वासुदेव प्रतिवासुदेव को जीतकर एवं मारकर तीन खण्ड पर एकछत्र राज्य करते हैं । इसके अतिरिक्त २८ लब्धियों में से वासुदेव लब्धि भी एक लब्धि मानी गई है । इस पद का प्राप्त होना वासुदेव - लब्धि का फल है ।
वासुदेव में महान बल होता है । इस बल का उपमा द्वारा वर्णन करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है - कुँए के किनारे बैठे हुए और भोजन करते हुए वासुदेव को जंजीरों से बाँध कर यदि चतुरंगिणी सेना सहित सोलह हजार राजा मिलकर खींचने लगें तो भी वे उन्हें खींच नहीं सकते, किन्तु उसी जंजीर को बाएँ हाथ से पकड़कर वासुदेव अपनी ओर उन्हें आसानी से खींच सकते हैं।
जैन आगमों में जिन श्री कृष्ण का उल्लेख है वे ऐसे ही वासुदेव हैं, वासुदेव-लब्धि से सम्पन्न हैं ।
नियाणकडा - (निदानकृत) निदान जैन परम्परा का एक विशेष पारिभाषिक शब्द है । मोहनीय कर्म के उदय से कामभोगों की इच्छा होने पर साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका आदि का अपने चित्त में संकल्प कर लेना कि मेरी तपस्या से मुझे अमुक फल की प्राप्ति हो, उसे निदान कहते हैं । जन भाषा में इसे नियाणा कहते हैं । निदान कल्याण साधक नहीं । जो व्यक्ति निदान करके मरता है, उसका फल प्राप्त करने पर भी उसे निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । वासुदेव की पदवी पूर्वभव में किये गये निदान का फल होता है, अतः वासुदेव के भव में कोई जीव संसार त्यागकर साधु नहीं बन सकता ।
(निदान के विषय में विस्तृत वर्णन अन्तकृदशा महिमा में देखें)
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अन्तकृद्दशा सूत्र : पंचम वर्ग
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