Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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एक बार कुछ यादव कुमार घोड़े लेकर घूमने गये । प्यास लगी तो उन्होंने गड्ढे में पड़ी हुई शराब पी ली। वहीं द्वैपायन ऋषि तप युक्त ध्यान कर रहे थे । मदिरा के नशे में उन्मत्त यादव कुमार उनके ऊपर घोड़े कुदाने लगे, तथा कहीं एक मरा सर्प पड़ा था, उन्होंने उसे फेंककर ऋषि के गले में डाल दिया और ऋषि को प्रताड़ित किया ।
इस अभद्रतापूर्ण दुर्व्यवहार से द्वैपायन ऋषि क्रोधित हो गये । उन्होंने क्रोधावेश में निदान कर लिया कि “यदि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं द्वारका नगरी को जलाकर भस्म कर दूंगा और सभी यादवों का विनाश कर डालूँगा ।"
श्रीकृष्ण वासुदेव को ज्ञात हुआ तो उन्होंने ऋषि से क्षमा मांगी और निदान त्यागने की प्रार्थना की, परन्तु ऋषि ने निदान नहीं त्यागा, केवल इतना ही कहा कि "तुम दोनों भाई वच जाओगे ।'
श्रीकृष्ण वासुदेव ने इस विनाश से बचने का उपाय पूछा तो एक ज्ञानी मुनि ने बताया-जव तक द्वारका में आयम्विन तप होता रहेगा, कोई भी देव-दानव इसका विनाश नहीं कर सकेगा ।
श्रीकृष्ण वासुदेव ने पूरे नगर में ऐसी समुचित व्यवस्था कर दी कि प्रतिदिन आयम्बिल तप चलता ही रहे । निदानानुसार द्वैपायन ऋषि अग्निकुमार जाति के देव बना । वह पूर्व वैर का स्मरण करके द्वारका-दाह का अवसर देखने लगा, परन्तु प्रतिदिन की आयंबिल तपस्या के प्रभाव के सामने उसका कोई जोर नहीं चलता था । वह द्वारका नगरी को जलाने में असफल रहा, तथापि उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा, लगातार वारह वर्षों तक उसका यह प्रयत्न चलता रहा ।
बारह वर्षों के वाद द्वारका के कुछ लोग सोचने लगे-तपस्या करते-करते वर्षों व्यतीत हो गए, अब द्वैपायन (अग्निकुमार) हमारा क्या विगाड़ सकता है ? इसके अतिरिक्त कुछ लोग यह भी सोच रहे थे कि द्वारका के सभी लोग तो आयंविल कर ही रहे हैं, यदि हम लोग न भी करें तो इससे क्या अन्तर पड़ता है ?
समय की बात ही समझिए कि द्वारका में एक दिन ऐसा आ गया जब किसी ने भी आयम्बिन तप नहीं किया । व्यक्तिगत स्वार्थ एवं प्रमाद के कारण संकट-मोचक आयम्विल तप से सभी विमुख हो गये ।
अग्निकुमार द्वैपायन देव के लिये इससे बढ़कर और कौन-सा अवसर हो सकता था । उसने द्वारका में अग्नि-वर्षा प्रारम्भ कर दी । चारों ओर भयंकर शब्द होने लगे, जोर की आंधी चलने लगी, भूचाल से मकान धराशायी होने लगे, अग्नि की धधकती ज्वालाओं ने सारी द्वारका को अपनी लपेट में ले लिया । श्रीकृष्ण वासुदेव ने अग्नि शान्त करने के अनेकों प्रयत्न किए, परन्तु कर्मों का ऐसा प्रकोप चल रहा था कि आग पर डाला जाने वाला पानी तेल का काम कर रहा था । पानी डालने से आग शान्त होती है, पर उस समय ज्यों-ज्यों पानी डाला जाता था, त्यों-त्यों अग्नि और अधिक भड़कती थी । अग्नि की भीषण ज्वालाएं मानों गगन को भी भस्म करने का प्रयास कर रही थीं।
कृष्ण वासुदेव, बलराम सब निराश थे । उनके देखते-देखते द्वारका जल गई, वे उसे बचा नहीं सके । . १४२ .
अन्तकृद्दशा सूत्र : पंचम वर्ग ।
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