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जहा काली तहा सुकाली वि णिक्खंता जाव बहूहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावमाणी विहरइ । तए णं सा सुकाली अज्जा अण्णया कयाइं जेणेव अज्जचंदणा अज्जा जाव "इच्छामि णं अज्जाओ तुब्भेहिं अन्भणुण्णाया समाणी कणगावली तबोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।" एवं जहा रयणावली तहा कणगावली वि, णवरं तिसु ठाणेसु अट्ठमाई करेइ, जहा रयणावलीए छट्ठाई । एक्काए परिवाडीए संवच्छरो, पंचमासा बारस य अहोरत्ता । चउण्डं पंच परिसा णव मासा अट्ठारस दिवसा ।
सेसं तहेव, णववासा परियाओ । जाव सिद्धा । सूत्र ८:
दूसरे अध्ययन का उत्क्षेपक इस प्रकार हैआर्य जम्बू स्वामी ने कहा-हे भगवन् ! आठवें वर्ग के दूसरे अध्ययन में प्रभु महावीर ने क्या भाव फरमाये हैं ? कृपया बताइये । श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी, वहां पूर्णभद्र उद्यान (चैत्य) था, कोणिक नाम का राजा वहां राज्य करता था । उस नगरी में श्रेणिक राजा की रानी और कोणिक राजा की छोटी माता सुकाली नाम की देवी थी । काली की तरह सुकाली भी वैराग्य प्राप्त कर प्रव्रजित हुई और बहुत से उपवास आदि तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। फिर वह सुकाली आर्या अन्यदा किसी दिन आर्या चन्दना के पास आकर इस प्रकार बोली- 'हे आर्ये ! आपकी आज्ञा होने पर मैं कनकावली तप को अंगीकार करके विचरना चाहती हूँ ।” महासती आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर सुकाली आर्या ने रत्नावली तप के समान कनकावली तप की आराधना की । विशेषता इसमें यह थी कि तीनों स्थानों पर अष्टम-तेले किये, जबकि रत्नावली तप में बेले किये
द्वितीय अध्ययन
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