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कप्पइ मे जावज्जीवाए छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए । त्ति कटु अयमेयारूवं अभिग्गहं उग्गिण्हइ; उग्गिण्हित्ता जावज्जीवाए जाव
विहरइ । सूत्र १८:
तब अर्जुनमाली श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदय में धारण कर बड़ा प्रसन्न हुआ, संतुष्ट हुआ। प्रभु महावीर से इस प्रकार निवेदन करने लगा-हे भगवन् ! मैं आप द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, रुचि करता हूँ, यावत् आपके चरणों में दीक्षा धारण कर अपने कृत पापों से मुक्त होना चाहता हूँ। प्रभु महावीर ने कहा-हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो । विलम्ब मत करो ! तब उस अर्जनमाली ने ईशान कोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, लुंचन करके वे अनगार हो गये, और संयम व तप पूर्वक विचरने लगे। अर्जुनमाली अब अर्जुन मुनि हो गये । इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन श्रमण भगवान महावीर के चरणों में उपस्थित होकर वंदना नमस्कार करके, इस प्रकार का अभिग्रह-दृढ़ संकल्प धारण किया-"आज से मैं निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से जीवन पर्यन्त आत्मा को भावित करते हुए विचरूँगा ।" ऐसा अभिग्रह जीवन भर के लिये स्वीकार कर अर्जुन अणगार राजगृह
नगर में विचरने लगे । Maxim 18 :
Then Arjuna garland-maker, hearing and taking to heart the sermon of Sramana Bhagawāna Mahāvīra became very much glad and satisfied, and politely said to Bhagawāna-O Bhagawan ! I have faith, interest and
belief in Nirgrantha Pravacana, the doctrines as तृतीय अध्ययन
. १९९.
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