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सोमिलं माहणं पाणेहिं कडूढावेइ, कडूढावित्ता, तं भूमिं पाणिएणं अन्भुक्खावेइ, अन्भुक्खावित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उबागए। सयं हिं अणुवि ।
एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयम पण्णत्ते । ( अट्ठमं अज्झयणं समत्तं )
सूत्र ३६ :
कृष्ण वासुदेव के द्वारका नगरी में प्रवेश करते समय वह संयोगवश एकदम उनके सामने ही आ जाता है. तब उस समय वह सोमिल ब्राह्मण कृष्ण वासुदेव को अचानक सम्मुख देखकर भयभीत हुआ और जहाँ का तहाँ स्तंभित खड़ा रह गया और वहीं खड़े-खड़े ही स्थिति-भेद से अपना आयुष्य पूर्ण हो जाने से उसका अंग अंग ढीला पड़ गया वह सोमिल “धस" शब्द करता हुआ वहीं भूमि तल पर धड़ाम से गिर पड़ा। उसके प्राण निकल गये ।
उस समय कृष्ण वासुदेव ने सोमिल ब्राह्मण को (मरकर) गिरता हुआ देखा और देखकर इस प्रकार बोले
अरे ओ देवानुप्रियो ! यही वह मृत्यु की इच्छा करने वाला तथा निर्लज्ज एवं शोभाहीन सोमिल ब्राह्मण है, जिसने मेरे सहोदर छोटे भाई गजसुकुमाल मुनि को असमय में ही मृत्यु के मुँह में धकेल दिया है ।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण वासुदेव ने सोमिल ब्राह्मण के उस शव को चाण्डाली द्वारा घसीटवाकर नगर के बाहर फिंकवा दिया और उस शव से स्पर्श की गई भूमि को पानी से धुलवाया। उस भूमि को पानी से धुलवाकर कृष्ण वासुदेव अपने राजप्रासाद में प्रविष्ट हुए ।
आर्य सुधर्मा - इस प्रकार हे जम्बू ! मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने आठवें अंग के तीसरे वर्ग के आठवें अध्ययन का यह भाव प्रतिपादित किया है । (आठवां अध्ययन समाप्त)
अन्तकृद्दशासूत्र : तृतीय वर्ग
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