Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० २ सू० ३ जीवानां जराशोकादिनिरूपणम् ६७ मुखवत्रिकेत्यर्थः, तम् अणिज्जूहिताणं' अनियुश-अदत्वा, निपूर्वको यहि धातु. लौकिकः आच्छादनार्थकः बन्धनार्थको वा धातूनामनेकार्थत्वात् अतएव द्वायर्यापीडे काथरसे निहो नागद-तके इति कोशे (श्लोक-२३६) उक्तम् ; यद्वा निर्पूर्वक उहधातुः उक्तार्थकः 'पृषोदरादित्वाद् धातोर्यगागमः, अतएव "नियुहः शेखरे निर्या से नागदन्तके" इति विश्वकोशः, सदोरकमुखवत्रिकाधारणस्यापि उपलक्षणमिदम् तत्र इदमेव भगवतीसूत्र मूलं प्रमाणम् । अनेन भगवद्वाक्येन मुखो. परि मुखवत्रिकाया बन्धनं सिद्धम् , ये तु 'मुखवस्त्रिया मुखमनाच्छाधापि भाषणे है उत्तरासंग आदि से आच्छादित किये विना अथवा-'सूक्ष्मकाय' शब्द का अर्थ वस्त्रखण्ड है-जिसे मुखवस्त्रिका कहा जाता है । 'अणिज्जूहित्ता' में 'निर्' पूर्वक 'यूहि' धातु है, यह 'यूहि' लौकिक हैं और इसका अर्थ आच्छादन करना है, अथवा बांधना है। क्योंकि धातु के अनेक अर्थ होते हैं। इसीलिये 'हार्यापीडे काथरसे नि! हो नागदन्तके' अर्थात् नियूह शब्द का अर्थ-दरवाजा 'अपीड' बांधना काथरस-काढा, नागदन्त-खूटी इतने अर्थ है ऐसा अमरकोश में २३६ श्लोक में कहा है, अथवा-निर् पूर्वक 'ऊह' धातु भी है और इसका अर्थ भी वही है। इसका पाठ 'पृषोदरादिगण' में है, अतः पृषोदरादि होने से 'कह' धातु को 'यक' आगम हुआ है, अतएव नियूहः शेखरे द्वारे निर्यासे नागदन्तके' ऐसा विश्वकोश में लिखा है । यह पद सदोरक मुखवत्रिका को धारण करने का भी उपलक्षक है। वहां यही भगवती का मूलसूत्र प्रमाण है। भगवान् के इस वाक्य से मुख के ऊपर मुखवस्त्रिका बांधना અર્થ અને કકડો એ પ્રમાણે છે જેને મુખવઅિકા (મુહપત્તિ) કહેવામાં आवे छे. “ अणिज्जूहित्ता” से पायमा व्या७२९नी दृष्टि निर५४ " यूहि" धातु छ. । “ यूहि" धातुसी छ भने तन मथ dis.2 प्रभारी અગર બાંધવું એ પ્રમાણે થાય છે કેમકે ધાતુના અનેક અર્થે થાય છે तथा " द्वार्यापीडे काथरसे नि!हो णागदन्तके" से प्रमाणे अभीषन। ३३६मा
यु छे. અથવા નિરુપૂર્વક ઉહ ધાતુ પણ છે અને તેને અર્થ પણ ઉપર પ્રમાણે થાય છે. તેને પાઠ પૃષાદરાદિ ગણુમાં છે પૃષોદરાદિ હોવાથી ઉહ ધાતુને થડ भाराम थयेछे. “निर्यहः शेखरे द्वारे, निर्यासे नागदन्तके' 2 प्रमाणे विश्व કોષમાં લખ્યું છે. આ પદ સદરકમુખવસ્ત્રિકા દેરા સાથેની મુહપત્તિને ધારણ કરવામાં પણ પ્રમાણ રૂપ છે. તે વિષયમાં ભગવતી સૂત્રને આ મૂળ પાઠ જ પ્રમાણુ રૂપ છે. આ પ્રમાણે ભગવાનના વાકયથી મોઢા ઉપર મુહ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨