Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे यति, यावत्पदेन भाषते, प्रज्ञापयतीत्यनयोः ग्रहण कर्तव्यम्, 'एवं खल अज्जो' एवं खलु आर्याः! 'काउलेस्से पुढवीकाइए जाव अंतं करे एवं खलु कापोतिकलेश्यः पृथिवीकायिको यावदन्तं करोति, अत्र यावत्पदेन माकन्दिकपुत्रप्रश्नवाक्यमध्याद् अवशिष्टस्य सर्वस्यापि वाक्यस्य संग्रहो भवतीति बोध्यम् । 'एवं खलु अज्जो!' एवं खलु आर्याः ! 'काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेई' कापोतिकलेश्योऽकायिको यावदन्तं करोति, ‘एवं खलु अज्जो!' एवं खलु आर्याः ! 'काउलेस्से वणस्सइकाइए वि जाव अंतं करे' कापोतिकछेश्यो वनस्पतिकायिकोऽपि यावदन्तं करोति, सर्वत्रापि यावत्पदेन 'काउलेस्से से 'भाषते प्रज्ञापयति' इन क्रियापदों का ग्रहण हुआ है। कि 'काउलेस्से पुढवीकाइए जाव अंतं करेह' कापोतलेश्यावाला पृथिवीकायिक जीव यावत् समस्त दुःखो का अन्त कर देता है-यहां यावत् शब्द से माकन्दिक पुत्र अनगार के अवशिष्ट प्रश्नवाक्य का संग्रह हुआ है । 'एवं खलु अज्जो! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेह' इसी प्रकार से हे आर्यो ! जो मान्दिकपुत्र अनगारने ऐसा कहा है कि कापोतलेश्यावाला अप्कायिक जीव यावत् अन्त कर देता है। यहां पर भी यावत् शब्द से 'काउलेस्से हितो' पद से लेकर 'पच्छा सि. ज्झइ' इस पद तक के पाठ का ग्रहण हुआ है। इसी प्रकार से माकन्दिक पुत्र अनगार ने जो ऐसा कहा है कि-'एवं खलु अज्जो। काउ. लेस्से वणस्सइकाइए' हे आर्यो ! कापोतलेश्यावाला वनस्पतिकायिक जीव 'वि' भी जाव अंतं करेई' यावत् अन्त कर देता है-यहां पर भी छ - यावत् २०४थी "भाषते प्रज्ञापयति" मा यिापहोना सब यो छ. "काउलेस्से पुढवीकाइए जाव अंतं करेइ” पातश्यावापृथ्विीय જીવ યાવત્સમસ્ત દુઃખને અંત કરે છે. અહિયાં યાવત્ શબદથી માકદિ પુત્ર मनाना साहना प्रश्नवायनी संग्रह या छ "एवं खलु अज्जो काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेइ" मे प्रमाणे 8 मार्या माहिपुत्र અનગારે છે એમ કહ્યું છે કે કાપિત શ્યાવાળો અપકાયિક જીવ યાવત્ અંત उरे छे. माडियां ५५ यावत् शपथी "काउलेस्सेहिता" से ५४थी सन "पच्छा सिज्जइ" ५४ सुधीना पानसह थयो छ. मेरा शते भाइहीपुत्र अनारे २ सम युं छे , “एवं खलु अज्जो काउलेस्से वणसई काइए” उ मा पोतोश्यावाणा वनपति ७१ ५५ "जाव अंतं करेइ" यावत् मत परे छ. महिY यावत् शपथी काउलेस्सेहिता" मे ५४था
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨