Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे शरीरद्वारम् ५८१
___अथ त्रयोदशं शरीरद्वारमाह-"ससरीरी" इत्यादि ।
"ससरीरी जहा आहारए" सशरीरो यथा आहारका, अयमपि आहारकवद् अप्रथम एव सशरीरभावस्य अनादौ संसारेऽनेकशः प्राप्तत्वात् , “एवं जाव कम्मगसरीरी" एवं यावत् कार्मणशरीरी अत्र यावत्पदेन औदारिकवैक्रियाहारकतैजसशरीराणां संग्रहो भवति एवं चानादिसंसारेऽन्यतमशरीरस्य जीवे न अनन्तशो लब्धत्वाद् अप्रथम एव नतु प्रथम । “जस्स जं अस्थि सरीरं" यस्य यदस्ति शरीरम् , यस्य जीवस्य यच्छरीरं भवति तस्य तदेव शरीरं वक्तव्यम् । अवेदक होकर हो सिद्ध बनते हैं । इस प्रकार यह अवेदकता सिद्धों में प्रथम है। क्योंकि अवेदकतायुक्त सिद्धत्वपर्याय का लाभ जीव को इसके पहिले कहीं पर भी और कभी भी नहीं हुआ है।
बारहवां वेदवार समाप्त
१३ वां शरीरद्वार इसमें प्रभुने ऐसा समझाया है कि-'ससरीरी जहा आहारए' सशरीर भाव अनादिसंसार में अनन्तवार प्राप्त होने से आहारक के जैसा वह अप्रथम ही है 'एवं जाव कम्मगसरीरी' इसी प्रकार से यावत्-औदारिक शरीर भाव, वैक्रिय शरीरभाव, तैजसशरीर भाव, और कार्मणशरीर भाव ये सब भी अनादिसंसार में जीव के द्वारा लब्ध हुए है अतः ये सब अप्रथम ही हैं । प्रथम नहीं हैं। 'जस्स जे अस्थि सरीरं' जिस को जो शरीर होता है, उस जीव को वह शरीर कहना चाहिये। इस प्रकार उस शरीर की अपेक्षा उसमें अप्रथमता का कथन करना चाहिये, જીવ છે, તે અવેઠક થઈને જ સિદ્ધ બને છે. આ રીતે આ અદકપણ સિદ્ધોમાં પ્રથમ છે. કેમકે અદકતાવાળા સિદ્ધને પિતાની પર્યાયની પ્રાપ્તિ જીવને આનાથી પહેલાં કોઈ પણ સમયે કે કેઈપણ સ્થળે થઈ નથી.
છે બારમું વેદદ્વાર સમાપ્ત છે
तर शरी२६२मारमा प्रभुणे मे समा०युछे 3-'सम्ररीरी जहा आहारए' અનાદિ સંસારમાં સશરીર ભાવ અનંતવાર પ્રાપ્ત થવાથી આહારની માફક सशशश मप्रथम ४ छ. ' एवं जाव कम्मगसरीरी' यो रीत यावत्
દારિક શરીરભાવ, વૈક્રિયશરીર ભાવ, આહારક શરીર માવ, તૈજસશરીર ભાવ અને કામણ શરીરભાવ આ બધા અનાદિ સંસારમાં જીવને અનન્તવાર प्रा. थया छ. रथी त सा अप्रथम १ छे. प्रथम नथी. 'जस्म जे अस्थि सरीर'२०२२ शरीर य छ, ते ७१२ ते शरी२ ४. मेरीत
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૨