Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 648
________________ भगवतीपत्रे अहंतु संसारं विहाय प्रव्रजिष्यामि यूयं किं कुरुत भवत्सु एतादृशं सामर्थ्य विद्यते कि येन ममानुवजनं करिष्यथ अथवा संसारे वसत इति भावः । 'तए णं तं नेगमट्ठ सहस्सं पितं कत्तियं सेटिं एवं वयासी ततः खलु तत् नैगमाष्टसहस्रमपि तं कार्तिकं श्रेष्ठिनम् एवमवादीत् कार्तिकश्रेष्ठिनो धर्मविषयकाग्रहश्रवणानन्तरम् अष्टाधिकसहस्रसंख्याका नैगमा अपि कार्तिकम् एवम्-वक्ष्यमाणपकारेण अवोचनित्यर्थः । 'जइ णं देवाणुप्पिया!' यदि खलु देवानुप्रियाः 'संपारभयुब्विग्गा जाव पन्नासंति' संसारमयोद्विग्ना यावत् प्रजिष्यन्ति, यावरपदेन भीता जन्म मरणाभ्यां मुनिसुव्रतस्याऽन्तिके, इति संग्रहः । तदा अम्हं देवाणुपिया!' अस्माकं करोगे। क्या व्यवसाय करोगे? 'कि भे हियइच्छिए किं भे सामत्थे' आपकी हृदयाभिलाषा क्या है ? क्या आपमें शक्ति है ? अर्थात् मैं संसार को छोड़कर दीक्षा को अङ्गीकार करूंगा-पर आप लोग क्या करोगे ? क्या आप लोगों में ऐसी शक्ति है जो तुम सब मेरा अनुसरण कर सको ? तो कहो क्या तुम सब मेरे साथ रहना चाहते हे। ? या यहीं संसार में रहना चाहते हे। ? 'तए णं तं नेगमसहस्संपि तं कत्तियं सेट्टि एवं वयासी' इस प्रकार से कार्तिक सेठ का कथन सुनकर १००८ वणिरजनों ने भी उससे ऐसा कहा-'जइणं देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रिय ! यदि आप 'संसारभयुधिग्गा' संसारभय से उद्विग्न हो रहे हैं और 'जाव पव्वहस्संति' यावत् संसार को छोडकर दीक्षित हो रहे हैं-यहा यावत्पद से 'भीता जन्ममरणाम्यां मुनिसुव्रतस्थ अन्तिके' व्यवसाय ४२२॥ ? "कि भे हियइच्छिए कि' भे सामत्थे" मापन यनी શું અભિલાષા છે? આપનામાં શું શક્તિ છે ? અર્થાત્ હું સંસારને છેડીને દીક્ષા ધારણ કરીશ-તે પછી આપ બધા શું કરશો? આપ સૌમાં એવી તાકાત છે કે તમે સૌ મારૂં અનુકરણ કરી શકે? તે શું તમે સૌ મારી સાથે જ રહેવા ઈચ્છે છે ? કે અહિં સંસારમાં જ રહેવા ઇચ્છો छ। १ 'तए ण तं नेगमसहस्सं पि तं कत्तियं सेट्टि एवं वयासी' ति આ પ્રમાણે કહેવું સાંભળીને તે એક હજાર આઠે વણિકજનેએ તેઓને ४यु 3-“जइ णं देवाणुप्पिया" 3 हेवानुप्रियो ! २. भा५ संसारभयुविग्गा" ससाना भयथी द्विी २७ २४ा छ। सने "जाव पव्वइस्संति" यावत् ससा२ छोडनदीक्षा प्राय रे छी. मायावत्५४थी "भीता जन्ममरणाभ्यां मुनिसुव्रतस्य શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨

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