Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 596
________________ ५८२ भगवतीसूत्रे , " नवरं आहारगसरीरी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मद्दिद्दी" नवरम् आहारकशरीरी एकत्वपृथक्त्वेन यथा सम्यग्दृष्टिः स्यात् प्रथमः स्यादमथमः अयं चैतादृशआहार शरीरस्य प्रथमपान्त्या प्रथमो द्वितीयादिलाभापेक्षया अप्रथमः स्या दिति, चतुराहारकशरीरमाप्त्या मोक्षप्राप्तिर्भवतीति । "असरीरी जीवो सिद्धो एगतपुहुत्ते पढमो नो अपढमो" अशरीरी जीवः सिद्धश्व एकलपृथक्त्वेन प्रथमो नो प्रथमः, अशरीरी - शरीररहितो जीनः सिद्धश्व प्रथम एव शरीररहितजीवत्वसिद्धत्व पर्यायस्य प्रथमत एव प्राप्तत्वात् अत एव प्रथमो नो अप्रथमो भवतीति । इति त्रयोदशं शरीरद्वारम् ॥ १३ ॥ 'नवरं आहारगसरीरी एगन्तपुहुत्ते जहा सम्मद्दिट्ठी' परन्तु आहारक शरीरी एक जीव और नाना जीवों की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के जैसा कदाचित् प्रथम होता है और कदाचित् अप्रथम भी होता है। इस प्रकार के आहारकशरीर की जब जीव को प्रथमवार प्राप्ति होती है उस अपेक्षा आहारक शरीरी प्रथम है और द्वितीयादिवार में जब प्राप्ति होती है। तब उस अपेक्षा यह अप्रथन है आहारक शरीर की प्राप्ति जीव को चार बार से अधिक नहीं होती है। 'असरीरी जीवो सिद्धा एगन्तपुर्ण पढमो, नो अपडमी' अशरीरी जीव और सिद्ध एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से प्रथम ही हैं, अप्रथम नहीं हैं । क्योंकि शरीर रहित जीवत्वरूप सिद्धपर्याय जीव में एक ही बार जीव को प्राप्त होती है । १३ वां शरीरद्वार समाप्त | ते शरीरनी अपेक्षाथी तेमां अप्रथमतानु' उथन री बेवु 'नवरं आहारगसरीरी एगतपुहुत्ते जहा सम्मदिट्ठी' परतु आहार शरीरी येउन भने મનેક જીવાની અપેક્ષાથી સમ્યગ્દૃષ્ટિની માફક ફાઇવાર પ્રથમ થાય છે અને કોઈવાર અપ્રથમ પશુ થાય છે. આ પ્રકારના આહારક શરીરની જીવને જ્યારે પ્રથમવાર પ્રાપ્તિ થાય છે—ત્યારે તે અપેક્ષાએ આહારક શરીરી પ્રથમ છે. અને ખીજી ત્રીજી વારમાં જ્યારે પ્રાપ્તિ થાય છે ત્યારે તે અપેક્ષાથી આ અપ્રથમ છે. જીવને આહારક શરીરની પ્રાપ્તિ ચારવારથી વધારે થતી નથી. 'अमरीरी जीवो सिद्धो एगतपुहुत्ते ण पढमो नो अपढमो' मेऽवयन भने મહુવચનથી અશરીરી જીવ અને સિદ્ધ પ્રથમ જ છે. અપ્રથમ નથી. કેમકે શરીર વિનાની જીવપણારૂપ સિદ્ધપર્યાય જીવમાં એકજવાર પ્રાપ્ત થાય છે. વારવાર પ્રાપ્ત થતી નથી. ।। તેરમું શરીરદ્વાર સમાપ્ત !! શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨

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