Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 602
________________ भगवती सूत्रे टीका - " जीवे भंते!" जीवः खलु भदन्त ! " जीवभावेण " जीव भावेन - जीवस्वस्वरूपेण " किं चरिमे अचरिमे" किं चरमोऽचरमो वेति प्रश्नः । हे भदव ! जीवो जीवमावेन जीवस्त्रपर्यायेण किं जीवस्य चरमभागः प्राप्तव्यो sta, fi जीवो जीवस्वं कदाचित्यक्ष्यति ? अथवा अचरमः जीवत्वचरम समय विद्यमानताsस्ति कदाचिदपि जीवो जीवस्त्रपर्यायं न मोक्ष्यति ? इति प्रश्नः । भगवानाह - "नो चरिमे अचरिमे" नो चरमोऽचरमः, अविद्यमानजीवत्वचरम ५८८ अब सूत्रकार प्रथमादि अवस्थाओं के विपक्षभूत घरमादिको जीवादिपदरूप द्वारों में निरूपित करते हैं 'जीवेणं भंते! जीवभावेणं किं चरिमे' इत्यादि टीकार्थ-- 'जीवे णं भंते! जीवभावे णं' हे भदन्त ! जीव जीवश्वस्वरूप से 'किं चरिमे अचरिमे' चरम है या अचरम है ? जिसका सर्वदा के लिये अन्त होता है, वह चरम और जिसका कभी अन्त नहीं होता वह अचरम है । जीव अपनी जीवस्वपर्याय को क्या कभी छोड़ेगा ? या नहीं ? ऐसा यह गौतम का प्रश्न है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'नो 'चरिमे अचरिमे' हे गौतम । जीव अत्यन्तरूप से अपनी जीवत्वपर्याय को कभी भी नहीं छोड़ेगा जिसका सर्वदा अन्त-विनाश हो जाता है वह चरम और जिसका कदापि अन्त नहीं होता वह अचरम है । जीव अपनी जीवत्वर्या को क्या कभी छोडेगा ? या नहीं छोड़ेगा ऐसा यह હવે સૂત્રકાર પ્રથમ વિગેરે અવસ્થાઓના પ્રતિપક્ષરૂપ ચરમાદિને छत्राद्वियः ३पद्वाशमां नि३पित रे छे- 'जीवेणं भंते ! जीवभावेणं' त्यिाहि टीडार्थ' - 'जीवे णं भवे ! जीवभावे णं' हे भगवन् ववपथाथी 'कि' चरिमे अचरिमे' यरम छे ? अयरम ? भेना हमेशां मत थाय ते ચરમ છે અને જેના અન્ત કયારેયપણુ ન થતા હૈાય તે અચરમ છે. જીવ પેાતાના જીવપણાની પર્યાયને શુ' કાઇપણુ સમયે છેડશે ? કે નહી” છેડે ? એ પ્રમાણેના આ ગૌતમવામીના પ્રશ્ન છે. તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે'नो चरिमे अचरिमे' हे गौतम! लव पोताना पानी पर्यायने अन्य નારૂપથી કયારે પશુ છેાડશે નહી જેના અન્ત-વિનાશ હમેશાં થાય છે, તે ચરમ કહેવાય છે અને જેને નાશ કાઈપણુ સમી ન થાય તે અચમ છે. એમ કહેવામાં આવ્યુ છે. જીવભાવથી જીવના કોઇપણ સમયે અન્ત-નાશ ન થાય તે તેનાથી એ જ સમજાય છે તે એ ભાવથી ચરમ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨

Loading...

Page Navigation
1 ... 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710