Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे णमन्त इति वर्तमानव्यपदेशः परिणता इति भूतकालव्यपदेशः, वर्तमानभूतयोश्च परस्परं विरोधेन एकत्र युगपदवस्थाने विरोधात् यदि परिणमन्ति तदा न परिणता अथ परिणतास्तत् कथं परिणमन्ति । वर्तमानातीतयोविरोधादेव, आह-'अपरिणया' अपरिणताः । अत्रैवोपपत्तिमाह-'परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिपया' परिणमन्तीति पुद्गलाः नो परिणता अपरिणताः परिणमन्तीति कृत्वा न ते पुद्गलाः परिणता अपरिणताः, इति व्यपदिश्यते 'तए णं अहं तं मायिमिच्छादिद्वि उववन्नगं देवं एवं क्यासी' ततः खलु तस्य प्रश्नकरणानन्तरम् , अहं तं मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकं देवम् , एवमवादिषम् कथितवान् इत्यर्थः 'परिणमनो परिणया' जो पुद्गल परिणमन कर रहे हैं, वे पुद्गल परिणत नहीं कहे जाते हैं। क्योंकि 'परिणमन्ति' ऐसा व्यपदेश वर्तमान कालिक है और 'परिणता' ऐसा व्यपदेश भूत कलिक हैं। भूतकाल में और वर्तमान काल में परस्पर में भेद है। इसलिये इनका एकत्र अवस्थान होना कैसे माना जा सकता है ? यदि ये परिणम रहे हैं तो इन्हें परिणत नहीं कहा जा सकता, और यदि परिणत हो चुके हैं तो इन्हें परिणममान नहीं कहा जा सकता यही वात 'अपरिणया' इस पद से प्रकट की गई हैं। इसी कारण वे पुल जब परिणामशाली हो रहे हैं तो 'परिणमंतीति णो परिणया पोग्गला अपरिणथा 'परिणमन्ति' इस क्रिया को लेकर वे परिणममान पुद्गल माने जाते हैं अपरिणत नहीं माने जाते-अतः इसी कारण वे अपरिणत हैं । 'तए णं अहं मायिमिच्छादिहि उववन्नगं देवं एवं वयासा' हे भदन्त ! तब मैंने उस मायी मिथ्या
“परिणममाणा पोग्गला नो परिणया" २ पुस परिशमन री २॥ छे. ते Yदस परियत शिय नहि भ " परिणमंति" से प्रभारी व भान કાળ સંબંધી વ્યવહાર છે. ભૂતકાળ અને વર્તમાન કાળમાં અન્યોન્યમાં ભેદ છે. એથી તે બન્નેનું એક સ્થાનમાં રહેવું તે કેવી રીતે માની શકાય જે તે પરિણમી રહ્યા છે. તે તે “ પરિણત' કહિ શકાય નહિ અને જે પરિણત થઈ ગયા છે. તો તેને “પરિણમેમાન ” એ પ્રમાણે કહી શકાય નહિ गरपात "परिणया" पहथी प्रगट ४२वाम मावी . ते १२थी पारे पुरस परिभामा २हाय त “परिणमंतीति णो परिणया पोग्गला अपरिणया' परिणमन्ति" मे याने सन ते परिश्त' मानવામાં આવે છે. અપરિણત માનવામાં આવતા નથી, જેથી આ કારણે તે परित छ. " तए णं अई त मायिमिच्छादिविउववन्नगं देवं एवं वयात्री"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨