Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१६ उ० ८ सू० १ लोकस्वरूपनिरूपणम् २८५ देसा ते नियमा एगिदियदेसा' एकेन्द्रियाणां सर्वत्र सद्भावात् 'अहवा एगिदियदेसाय बेइंदियस्स य देसे १ अहवा एगेंदियदेसाय बेइंदियस्स य देवा २ अहवा एगिदियदेसाय बेंदिवाण य देसा ३' रत्नपमा पृथिवी द्वीन्द्रियजीवानामाश्रयः, ते च द्वीन्द्रिया एकेन्द्रियापेक्षयाऽतिस्तोकास्ततश्च रत्नपभोपरितन वरमान्ते तेषां द्वीन्द्रियाणां कदाचिद्देशः देशा वा स्युः । एवमेव त्रीन्द्रियादारभ्य अनिन्द्रियपर्यन्तेऽपि विज्ञेयम् । तथा-'जे जीवप्पएसा ते नियमा और अजीव प्रदेश हैं। 'जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा' जो वहां जी। देश हैं एकेन्द्रियजीवों के देश हैं वे-क्योंकि एकेन्द्रियों का सर्वत्र सद्भाव है। 'अहवा-एगिदिदेसाय बेह दियस्स य देसे १, अथवा वे जीव एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं । और एक बेहन्द्रिय का देश है, 'अहवा-' एगे दिय देसा य बेइंदियस्स य देसा२' अथवा एकेन्द्रियों के देश हैं और एक बेइन्द्रिय के देश हैं,२ 'अहवा एगे दियदेसाय बेइंदियाण य देसा३' अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और बेहन्द्रिय जावों के देश हैं,३ 'रत्नप्रभा पृथिवी में द्वीन्द्रियजीवों का आश्रय हैं और वे द्वीन्द्रियजीव एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा अतिस्तोक हैं । इसी कारण रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितनचरमान्त में उन द्वीन्द्रियों में से कदाचित् एक जीव का एकदेश हो सकता है और कदाचित् अनेक देश हो सकते है। इसी प्रकार का कथन तेन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय पर्यन्त जीवों के सम्बन्ध
नियमा एगिदियदेसा" या २ हेश छ. ते सन्द्रिय वानी है। छ
म सन्द्रियाना धीमे समा छे. "अहवा एगिदिय देखाय बेइंदियस्म य देसे" अथवा त
मेन्द्रिय नाशी छे. अनमें छन्द्रियाना देश छ. “अहवा-एगिदिय देसाय बेइंदियस्स य देसा (२)" अथवा सन्द्रियाना देश छ. मन मेन्द्रियाना देश छ. (२) "अहवा- एगिदियदेसा, बेइंदियाणय देसाय (३)" अथवा मेद्रय वानहेश छे. मन में ઈન્દ્રિય જીવોને દેશ છે. (૩) રત્નપ્રભ પૃથ્વીમાં બે ઈદ્રિયવાળા અને આશ્રય છે. અને તે બે ઈન્દ્રિયવાળા જ એક ઇન્દ્રિયવાળા જ કરતાં ઘણા થોડા છે. તે જ કારણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તમાં બે ઇન્દ્રિ. યવાળા જીવમાંથી કદાચ એક જીવને એક દેશ હોઈ શકે છે. અને કદાચ અનેક દેશ પણ હોય છે. તે જ રીતનું કથન ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા જીથી લઈને અનિન્દ્રિય પર્વતના છાના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. તથા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨