Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक १ अमीर-गरीब सबके घरों में भिक्षा के लिए जाता है और एषणीय एवं शुद्ध आहार ग्रहण करता है। वह किसी भी गृहस्थ को आहार देने के लिए विवश नहीं करता और न जबरदस्ती से आहार ग्रहण करता है। ऐसी स्थिति में कभी वह सामान्य घर में गृहस्थ के साथ प्रवेश करे और उस गृहपति की साधु को आहार देने की स्थिति न हो या इच्छा न हो, परन्तु उस साथ के गृहस्थ की लज्जा या दबाव के कारण वह साधु को आहार देवें तो इससे साधु के संयम में दोष लगता है अतः साधु को गृहस्थ के साथ किसी के घरों में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
इसी तरह अन्य मत के या पार्श्वस्थ साधुओं के साथ किसी के घर में भिक्षा को जाने से भी संयम में अनेक दोष लग सकते हैं। क्योंकि अन्य भिक्षु एषणीय-अनेषणीय की गवेषणा किए बिना ही जैसा मिल गया वैसा ही आहार ग्रहण कर लेते हैं। और जैन साधु सचित्त एवं अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में वे उसकी निन्दा कर सकते हैं. यह कह सकते हैं कि यह तो ढोंगी एवं पाखण्डी है, हमारे साथ होने के कारण अपनी. उत्कृष्टता बताता है, जहां अकेला होता है वहां सब कुछ ले लेता है और कभी इस समस्या को लेकर गहस्थ के घर में भी वाद-विवाद हो सकता है। इससे गृहस्थ के मन में कुछ सन्देह पैदा हो सकता है। इस तरह वह अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करता है तो उक्त स्थिति पैदा हो सकती है और उसे ग्रहण करता है तो उसके संयम में दोष लगता है। इसके अतिरिक्त सबको एक साथ भिक्षा के लिए आया हुआ मान कर गृहस्थ पर भी बोझ पड़ सकता है और कभी किसी को न देने की इच्छा रखते हुए भी लज्जावश उसे देना पड़ता है, परन्तु अन्दर में बोझ सा अनुभव कर सकता है। इन सब दोषों से बचने के लिए मुनि को गृहस्थ, पार्श्वस्थ साधु एवं अन्य मत के संन्यासियों के साथ किसी भी गृहस्थ के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
'शौच के लिए जाते समय उपरोक्त व्यक्तियों का साथ करने में भी संयम में अनेक दोष लगते हैं। प्रथम तो उनके पास अप्रासुक (सचित्त) पानी होगा। अत: उनसे बात-चीत करने में उन पानी के जीवों की विराधना होगी। दूसरे साधु को रास्ते चलते हुए बोलना नहीं चाहिए। यदि वह बातें करता चलता है तो वह मार्ग को भली-भांति नहीं देख सकता। और यदि उन से बातें नहीं करता है तो वे नाराज भी हो सकते हैं और अन्ट-सन्ट शब्द भी बोल सकते हैं। तीसरे यदि उनके आगे-आगे चले तो उन्हें अपना अपमान महसूस हो सकता है और उनके पीछे चलने से जैन धर्म की लघुता होती है और बराबर चलने पर सचिस पानी का स्पर्श होने की संभावना है। चौथे में वह शौच के लिए निर्दोष भूमि नहीं देख सकता। उनके सामने भी नहीं बैठ सकता। इसलिए कभी उसे बहुत दूर जाने पर भी योग्य स्थान न मिलने पर जैसे-तैसे स्थान पर शौच बैठना पड़ता है। अतः गृहस्थ आदि के साथ शौच जाने से अनेक दोष लगते हैं। इस कारण साधु को उनके साथ शौच को नहीं जाना चाहिए। .... स्वाध्याय भूमि में भी उनके साथ प्रवेश करने में सचित्त जल के अतिरिक्त अन्य सभी दोष लगते हैं। इसके अतिरिक्त उनसे बातें करते रहने के कारण स्वाध्याय में विघ्न पड़ता है। इसलिए साधु को स्वाध्याय के लिए भी गृहस्थ आदि के साथ नहीं जाना चाहिए। .
विहार के समय उनके साथ जाने से वह बातों में उलझा रहने के कारण अच्छी तरह से मार्ग नहीं देख सकेगा। तथा बातों में समय बहुत लग जाने के कारण समय पर पहुंच नहीं सकेगा। तथा यथासमय आवश्यक क्रियाएं भी नहीं कर सकेगा। कभी पेशाब आदि की बाधा होने पर वह संकोच वश