Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १ एसणिज-एषणीय-निर्दोष। जाव-यावत्। पडिग्गाहिज्जा-ग्रहण करे।
. मूलार्थ–साधु अथवा साध्वी भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर शाली आदि धान्यों, तुष बहुल धान्यों और अग्नि द्वारा अर्धपक्व धान्यों, तथा मंथु चूर्ण एवं कण सहित एक बार भुने हुए अप्रासुक यावत् अनेषणीय पदार्थों को ग्रहण न करे। तथा वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ उपस्थित होने पर शाली आदि धान्य या उसका चूर्ण, जो कि घर में दो-तीन बार या अनेक बार अग्नि से पका लिया गया है। ऐसा और एषणीय निर्दोष पदार्थ उपलब्ध होने पर साधु उसे स्वीकार कर ले।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भी यह बताया गया है कि साधु-साध्वी को चावल (शालीधान) आदि अनाज एवं उनका चूर्ण जो अपक्व या अर्धपक्व हो, नहीं लेना चाहिए। क्योंकि शाली-धान (चावल) , गेहुं, बाजरा आदि सजीव होते हैं, अतः इन्हें अपक्व एवं अर्धपक्व अवस्था में साधु को नहीं लेना चाहिए। जैसे- लोग मकई के भुट्टे एवं चने के होले आग में भूनकर खाते हैं, उनमें कुछ भाग पक जाता है और कुछ भाग नहीं पकता। इस तरह जो दाने अच्छी तरह से पके हुए नहीं हैं वे पूर्णतया अचित्त नहीं हो पाते। उनमें सचित्तता की संभावना रहती है। इसलिए साधु को ऐसी अपक्व एवं अर्धपक्व वस्तुएं नहीं लेनी चाहिएं। तात्पर्य यह है कि साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। और जो पदार्थ अच्छी तरह पक गए हैं, अचित्त हो गए हैं, उन्हें साधु ग्रहण कर सकता है। शाली-चावल की तरह अन्य सभी तरह के अन्न एवं अन्य फलों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए कि साधु उन सब वस्तुओं को ग्रहण नहीं कर सकता है जो सचित्त एवं अनेषणीय हैं और अचित्त एवं एषणीय पदार्थ को यथावश्यक ग्रहण कर सकता है।
- यह तो स्पष्ट है कि साधु को आहार आदि ग्रहण करने के लिए गृहस्थ के घर में जाना पड़ता है। क्योंकि जिस स्थान पर साधु ठहरा हुआ है, उस स्थान पर यदि कोई व्यक्ति आहार आदि लाकर दे तो साधु उसे ग्रहण नहीं करता । क्योंकि वहां पर वह पदार्थ की निर्दोषता की जांच नहीं कर सकता। इस लिए स्वयं गृहस्थ के घर पर जाकर एषणीय एवं प्रासुक आहार आदि पदार्थ ग्रहण करता है।
___ अतः यह प्रश्न जरूरी है कि साधु को गृहस्थ के घर में किस तरह प्रवेश करना चाहिए। इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं:
मूलम्- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविसिउकामे नो अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अप्परिहारिएणं सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज वा। से भिक्खू वा. बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा नो अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमिज वा पविसिज वा। से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो अन्नउत्थिएण वा जावगामाणुगामं दूइजिज्जा ॥४॥