Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 'श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1 - 1 - 1 - 1 // 7 रूपसे विभाग करके प्रकृति = प्रजा याने नगरवासी-नागरिकोंको बांट दिया... और कचरेको दूर करके साफ - सफाइ रखना... तथा शल्योद्धार एवं भूमिका स्थिरीकरण करके पक्की इंटोसे भूमितल तथा मकान बनाना और सुवर्ण-मणि-रत्नोंका ग्रहण करनेका आदेश दीया... नागरिकोंने भी राजाके उपदेशानुसार वैसा हि किया... अतः सभी लोग सुख-चैन से सुखभोगको पाकर सुखी हुए... यहां यह अर्थोपनय है... राजा के समान आचार्य - गुरु, एवं प्रजा - नागरिक समान शिष्य - साधुगण.. भूमि खंड (प्लोट) समान... संयम - चारित्र... और मिथ्यात्व आदि दोष समान कचरे को दूर करके... सर्व प्रकार से विशुद्ध संयम - चारित्रका आरोपण करे... तथा उस सामायिक - संयम को स्थिर करके... पक्की इंटोसे भूमितल समान महाव्रत का आरोपण करके प्रासाद = महलमकान समान यह पंचाचार स्वरूप आचार याने चारित्रधर्मका आदर करें... यहां रहे हुए साधुगण शेष सभी शास्त्र स्वरूप रत्न - मणी - सुवर्णका ग्रहण करते हैं और क्रमशः सकल पापकर्मोके क्षय से निर्वाण - मोक्ष पद पाते हैं... अब सूत्रानुगम के प्रसंगमें शुद्ध उच्चार से = बोलने में और सुनने में स्खलना न हो इस प्रकारसे सूत्रका पाठ = उच्चार करें... अल्प = छोटा सूत्र एवं महान् = लंबा अर्थ... तथा सूत्र 32 दोषोंसे रहित होता है एवं छंद-अलंकार आदि पैंतीस (35) वाणी गुण - लक्षण युक्त सूत्र होता है... एवं 8 गुणवाला भी सूत्र होता है... I. सूत्र | // 1 // सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इहमेगेसिं नो सण्णा भवइ / II संस्कृत-छाया : श्रुतं मया आयुष्मान् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् / इह एकेषां नो संज्ञा भवति / III शब्दार्थ : - आउसं ! =हे आयुष्मन् ! / मे सुयं-मैंने सुना है / तेणं भगवया उस भगवान ने / एवमक्खायं इस प्रकार कथन किया है / इह इस संसार में | एगेसिं-किन्हीं जीवों को / णो नहीं / सण्णा -संज्ञा-ज्ञान / भवइ-होता है /