Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 488 # 1 - 1 - 1 - 1 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लोभसंज्ञा-कषायमोहनीय कर्म के उदय से भौतिक पदार्थों, विषय-वासना एवं भोगोपभोग के साधनों को प्राप्त करने की लालसा बनाए रखना, संग्रह की कामना को बढ़ाते रहना / ओघसंज्ञा-जीव की अव्यक्त चेतना, जो ज्ञानावरणीय कर्म के अल्पक्षयोपशम के कारण उत्पन्न होती है / . 10 लोकसंज्ञा-'अपुत्रस्य गतिनास्ति' आदि लोक प्रचलित मान्यताओं पर विश्वास करना तथा उनके अनुसार अपनी धारणा बना लेना / सुखसंज्ञा-इन्द्रिय एवं मनोऽनुकूल विषयों का उपभोग करना एवं उसमें आनन्द की अनुभूति करना / 12 दुःखसंज्ञा-इन्द्रिय एवं मन के प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःखानुभूति करना / 13 मोहसंज्ञा-मोहनीयकर्म के उदय से विषय-वासना एवं कषायों में आसक्त रहना / 14 विचिकित्सासंज्ञा-मोहनीय एवं ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म एवं तत्त्वों में शंका-संदेह करना / शोकसंज्ञा-मोहनीयकर्म के उदय से इष्ट वस्तु के न मिलने या उसका वियोग होने पर तथा अनिष्ट वस्तु का संयोग पाकर रोना, पीटना, विलाप आदि करना / 16 धर्मसंज्ञा-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आगार-गृहस्थ धर्म या अनगार साधु धर्म को स्वीकार करना, संयम मार्ग में या त्याग पथ पर गतिशील होना / ज्ञान संज्ञा के भी 5 भेद किए गए हैं... 1 मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य क्षेत्र में स्थित वस्तु को जानना पहचानना / 2 श्रुतज्ञान-वाच्य-वाचक संबंध द्वारा शब्द से संबन्धित अर्थ का परिज्ञान प्राप्त करना / अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादित क्षेत्र में स्थित रूपी द्रव्यों को जानना-देखना / मनःपर्यवज्ञान-इन्द्रिय और मन के सहयोग बिना मर्यादित क्षेत्र में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के भावों को जानना /