Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 1-1-5 - 2 (41) 241 E और स्पर्श ये पांच विषय हैं, उन्हें गुण कहते हैं / और आवर्त संसार का परिबोधक हैआवर्तन्ते-परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवतः-संसार अर्थात् जिसमें प्राणियों का आवर्तपरिभ्रमण होता रहे उसे आवत-संसार कहते हैं / शब्दादि विषय संसार परिभ्रमण के कारण है / क्योंकि- इन से कर्म का बन्ध होता है और कर्म बन्ध के कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है / इस तरह यह विषय याने गुण संसारका कारण / और शब्दादि गुणों से जीव कर्म बान्धते हैं, कर्म से आत्मा में विषयादि गुणों की परिणति होती है / इस दृष्टि से विषयादि गुण को संसार कहा गया है / और दोनों जगह कारण में कार्य का आरोप होने से विषयादि गुणों को संसार एवं संसार को विषयादि गुण कहा गया है / वस्तुतः देखा जाए तो राग-द्वेष युक्त भावों से गुणों में या विषयों में प्रवृत्ति करने का नाम ही संसार है / क्योंकि संसार में परिलक्षित होने वाली विभिन्न गतियें एवं योनियें रागद्वेष एवं गुणों-विषयों की आसक्ति पर ही आधारित है / राग-द्वेष से कर्म बन्धते है, कर्म बन्ध से जन्म-मरण का प्रवाह चालू रहता है और जन्म मरण ही वास्तविक दुःख है / इससे स्पष्ट हो गया कि संसार का मूल राग-द्वेष है, गुण है, विषय-विकार है / 'गुण' शब्द में एक वचन का प्रयोग किया है / इस से गुण शब्द व्यक्ति से भी संबन्धित है / जब इसका संबन्ध व्यक्ति के साथ जोड़ते हैं, तो प्रस्तुत सूत्र का अर्थ होगाजो व्यक्ति शब्दादि गुणों में प्रवृत्त है, वह संसार में परिभ्रमणशील है और जो व्यक्ति संसार में गतिमान है वह गुणों में प्रवृत्तमान है / . यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जो व्यक्ति गुणों में प्रवृत्त है, वह संसार में वर्तता है, यह कथन तो ठीक है; परन्तु जो संसार में वर्तता है, वह गुणों में वर्तता है / यह कथन युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता / क्योंकि संयमशील साधु संसार में रहते हैं परन्तु गुणों में प्रवृत्ति नहीं करते / अतः संसारमें रहे हुए लोगोंको नियम से गुणों में प्रवृत्तमान मानना उचित प्रतीत नहीं होता / ____ यह ठीक है कि यहां गुणों का अर्थ राग-द्वेष युक्त गुणों में प्रवृत्ति करने से लिया गया है / क्योंकि गुणों में प्रवृत्ति होने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता, कर्म का बन्ध रागद्वेष युक्त प्रवृत्ति से होता है / यह सत्य है कि, संयम से बन्ध नहीं, किन्तु कर्मों की निर्जरा होती है / परन्तु छठे गुणस्थान मे संयम के साथ जो सरागता है, उससे भी कर्म का बन्ध होता है / यह नितांत सत्य है कि सावध कार्य में प्रवृत्ति न होने के कारण पाप कर्म का बन्ध नहीं होता, परन्तु धर्म, गुरु एवं सत्य, अहिंसा आदि सिद्धान्त पर सराग भाव होने से पुण्य का बन्ध होता है और इसी कारण छठे गुणस्थान में देवलोक का आयु कर्म बन्धता है / देव