Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 278 // 1-1-6-4 (५२)卐 त्रास श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV सूत्रार्थ : उन उन स्थानोमें उत्पन्न हुए कारणोंसे हे शिष्य ! देखो... आतुर लोक उन्हें पीडा देतें हैं, विविध जीव पृथ्वीकाय आदिके आश्रय लेकर रहे हुए हैं... // 52 // V टीका-अनुवाद : पूजा, चमडा, रुधिर आदि विविध प्रयोजन (कारण) उत्पन्न होनेसे हे शिष्य ! देखो मांसभक्षण आदिमें आसक्त अस्वस्थ मनवाले आरंभशील मनुष्य विविध प्रकारकी वेदना = पीडा उत्पन्न करनेके द्वारा अथवा तो जीवोंके वधके द्वारा सजीवोंको संताप (पीडा) देते हैं... यावत् वध करतें हैं... पृथ्वीकाय आदिका आश्रय लेकर रहे हुए विविध बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय जीव सभी जगह रहे हुए है... यह बात जानकर, मनुष्य को निर्दोष अनुष्ठानवाला होना = बनना चाहिये, यह इस सूत्रका सार है... अन्य मतवाले तो कुछ और बोलतें हैं और कुछ और ही करते हैं, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : भारतीय चिन्तन धारा के प्रायः सभी चिन्तकों ने, विचारकों ने, हिंसा को पाप माना है, और त्याज्य भी कहा है / फिर भी हम देखते हैं कि अनेक व्यक्ति त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं / इसी कारण यह प्रश्न उठता है कि जब हिंसा दोष युक्त है, तो फिर अनेक जीव उसमें प्रवृत्त क्यों होते हैं ? प्रस्तुत सूत्र में इसी प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार ने बताया है कि विषय-वासना में आतुर बना व्यक्ति हिंसा के कार्य में प्रवृत्त होता है / हिंसा में प्रवृत्ति के लिए सत्रकार ने “आतुर" शब्द का प्रयोग किया है / वस्तुतः आतुरता-अधीरता जीवन का बहुत बड़ा दोष है / जीवन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि आतरता के कारण अनेकों काम बिगड जाते हैं / क्योंकि जब जीवन में किसी कार्य के लिए आतुरता, अधीरता या विवशता होती है, तो वह व्यक्ति उस समय अपने हिताहित को भूल जाता है / परिणाम स्वरूप बाद में काम बिगड़ जाता है और केवल पश्चाताप करना ही अवशेष रह जाता है / इसलिए महापुरुषों का यह कथन बिल्कुल सत्य है कि कार्य करने के पूर्व खूब गहराई से सोच-विचार लेना चाहिए और धीरता के साथ काम करना चाहिए / जैसे व्यवहारिक कार्य के लिए धीरता आवश्यक है, उसी तरह आध्यात्मिक साधना के लिए भी धीरता आवश्यक है / इससे स्पष्ट हो गया कि आतुरता जीवन का बहुत बड़ा दोष है / आतुर व्यक्ति जीवन का एवं प्राणियों का हिताहित नहीं देखता / वह तो अपना प्रयोजन पूरा करने की चिन्ता में