Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 361
________________ 302 // 1 - 1 - 7 - 5 (50) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्र..ाशन परियावज्जंति-मूर्छा को प्राप्त हो जाते हैं / जे-जो जीव / तत्थ-वहां पर। परियावज्जंतिमूर्छा को प्राप्त करते हैं / ते-वे जीव / तत्थ-वहां पर / उद्दायंति-मृत्यु को प्राप्त करते हैं-मर जाते हैं / एत्थ-इस वायुकाय में / सत्थं-शस्त्र का / समारंभमाणस्स-समारंभ करने वाले को / इच्चेते-यह सभी / आरंभा-आरंभ / अपरिणाया-भवंति-अपरिज्ञात, ज्ञात और प्रत्याख्यात नहीं होते हैं / एत्थ-इस वायुकाय में | सत्थं-शस्त्र का / असमारंभमाणस्ससमारम्भ न करने वाले के / इच्चेते-यह सभी / आरंभा-आरंभ / परिणाया भवंति-परिज्ञातज्ञात और प्रत्याख्यात होते हैं / तं-उस आरंभ के / परिण्णाय-द्विविध परिज्ञा से जानकर / मेहावी-बुद्धिमान / णेव सयं-न तो स्वयं / वायुसत्थं-वायु शस्त्र द्वारा / समारंभेज्जा-समारंभ करे और / णेवण्णे-न दूसरों से / वाउसत्थं-वायु शस्त्र द्वारा / समारंभावेज्जा-समारंभ करावे और / णेवण्णे-न दूसरों की जो / वाउसत्थं समारंभंते-वायु शस्त्र द्वारा समारंभ कर रहे हैं, उनकी / समणुजाणेज्जा-अनुमोदना-प्रशंसा करे / जस्सेते-जिसको यह / वाउसत्थ समारंभावायु शस्त्र समारंभ / परिण्णाया भवंति-परिज्ञात-ज्ञात और प्रत्याख्यात होते है / से हु मुणीवही निश्चय से मुनि / परिन्णायायकम्मे-परिज्ञात कर्मा कहलाता है / तिबेमि-इंस प्रकार में कहता हूं / IV सूत्रार्थ : वह मैं सुधर्मास्वामी कहता हूं कि- जो संपातिम जीव हैं उनका आघातसे संपात होता है, और स्पर्शको पातें हैं, स्पर्शको पाये हुए कितनेक जीव संघातको पाते हैं... जो वहां संघातको पातें हैं, वे वहां परिताप पातें हैं और जो वहां परिताप पातें हैं वे वहां मरतें हैं... वायुकायमें शस्त्रका समारंभ करनेवालेने यह सभी आरंभोकी परिज्ञा नहिं की है... और इस वायुकायमें शस्त्रको समारंभ नहिं करनेवालेने यह सभी आरंभोकी परिज्ञा की है... उन आरंभोकी परिज्ञा करके मेधावी-साधु स्वयं वायुशस्त्रका आरंभ न करे, अन्योंके द्वारा वायुशस्त्रका आरंभ न करावें, और वायुशस्त्रका आरंभ करनेवाले अन्योंकी अनुमोदना न करे... जिन्होंको यह वायुशस्त्रका समारंभ परिज्ञात हुआ है, वह हि मुनी परिज्ञातकर्मा है... ऐसा में सुधर्मास्वामी हे जम्बू ! तुम्हें कहता हूं || 60 // v टीका-अनुवाद : यह सूत्र भी सरल होनेसे संस्कृत टीका नहिं है, अतः इस सूत्रका भावार्थ पूर्व कहे गये इसी प्रकारके सूत्रसे स्वयं जानीयेगा... अब छह (6) जीवनिकायका वध करनेवालोंको अपाय (दुःख) दिखानेके साथ जो वध नहिं करतें हैं उनमें संपूर्ण मुनिपना है यह बात दिखानेके लिये सूत्र क्रमांक 61 और 2 कह कर इस प्रथम अध्ययनका समापन करतें हैं...

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