Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 369
________________ 310 1 - 1 - 7 - 7 (62) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यथाविधि महाव्रतोंके आरोपण स्वरूप उपस्थापना (वडी-दीक्षा) करनी चाहिये... अब उपस्थापनाकी विधि कहतें हैं... शुभ तिथि करण नक्षत्र मुहूर्त तथा शुभ द्रव्य क्षेत्र एवं भाव में परमात्माकी प्रतिमा को प्रवर्धमान-स्तुतिओंसे वंदना करके शिष्यके साथ सूरीजी म. प्रभु चरणोंमें प्रणाम करके महाव्रतका आरोपण करने के लिये काउस्सग्ग करके, एक एक करके सभी महाव्रतों का प्रतिज्ञा सूत्र शिष्य को तीन तीन बार उच्चरावे... यावत् रात्रिभोजनविरमण व्रत पर्यंत सभी आलापक तीन तीन बार उच्चार करें... अंतमें इच्चेइयाइं पंच महव्वयाई... इत्यादि तीन बार उच्चार करावें, बादमें वांदणा देकर शिष्य, खडा होकर नम होकर कहता है कि- संदिसह किं भणामि ? हे गुरुदेव / आप आदेश करें कि- मैं क्या कहूं ? सूरिजी कहतें हैं कि- वंदन करके निवेदन करो... ऐसा कहने पर शिष्य वंदन करके नमताके साथ खड़ा होकर कहता है कि- आपने मुझे महाव्रतः दीये अब में हितशिक्षा चाहता हूं... तब सूरिजी म. कहतें हैं कि- जिनप्रवचनके पारगामी हो तथा भावाचार्यके गुणोंसे वृद्धिको पाओ ! इतना बोलनेके बाद तुरंत हि आचार्य शिष्यके मस्तकके उपर सुगंधि वासचूर्णकी मुट्ठी बिखेरतें याने वास-क्षेप करतें हैं बादमें शिष्य वंदन देकर नवकार मंत्रका पाठ करते करते आचार्यको प्रदक्षिणा करतें हैं... फिर से भी वंदन करके सभी क्रिया पूर्ववत् करतें हैं इस प्रकार तीन प्रदक्षिणा देकर जब शिष्य खडा रहता है तब बाकीके सभी साधु नवदीक्षित साधुके मस्तकके उपर एक साथ सुगंधि वास-क्षेप करतें हैं, अथवा साधुओंको सुलभ केशराएं बिखेरतें हैं, उसके बाद आचार्य म. शिष्यके साथ काउस्सग्ग करतें हैं, बादमें कहतें हैं कि आपका गण... कौटिक है... आपकी शाखा... वयरी है... एवं आपका कुल... चान्द्र कुल... है... आपके... अमुक नामके आचार्य म. हैं... आपके... अमुक नामके उपाध्याय म. है... आपके... अमुक नामके प्रवर्तिनी साध्वीजी म. है... बादमें आयंबिल, नीवी या अपने गच्छकी परंपरासे कीये जानेवाले तपश्चया - प्रत्याख्यान करें... इस प्रकार यह अध्ययन, आदि मध्य और अंतमें कल्याणके समूहको देनेवाला, भव्य- . जीवोंके मनका समाधान करनेवाला, प्रिय-वियोगादि दुःखोंके आवर्त (भ्रमरी) तथा अनेक कषाय स्वरूप जलचर (मगरमच्छ) आदिके समूहसे व्याप्त होनेसे विषम इस संसार - नदी

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