Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-१-७-७ (62) 311 (समुद्र) को तारनेमें समर्थ और निर्मल दया-रसवाला यह अध्ययन बार बार मुमुक्ष जीवोंको पढना चाहिये // इति // छः // VI सूत्रसार : जीवन में धन-ऐश्वर्य का भी महत्त्व है / ऐश्वर्य एकान्ततः त्याज्य नहीं है / किन्तु धनऐश्वर्य भी दो प्रकार का है-१-द्रव्य धन और २-भाव धन / स्वर्ण, चांदि; रत्न, सिक्का, धान्य आदि भौतिक पदार्थ द्रव्य धन हैं / इससे जीवन में आसक्ति बढ़ती है, इस कारण इसे त्याज्य माना है / क्योंकि यह राग-द्वेष जन्य है तथा राग-द्वेष को बढ़ाने वाला है / सम्यग् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र ही भाव धन-ऐश्वर्य है / और यह आत्मा की स्वाभाविक निधि है / इस ऐश्वर्य का जितना विकास होता है; उतना ही राग-द्वेष का ह्रास होता है / अस्तु उक्त ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि को धनवान कहा गया है / इसका स्पष्ट अर्थ हुआ कि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से युक्त मुनि अनाचरणीय पाप कर्म का सेवन नहीं करता / वह 18 प्रकार के सभी पापों से दूर रहता है / इन पापों के आसेवन से आत्मा का अधःपतन होता है, इस लिए इन्हें पाप कर्म कहा गया है / - यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि छ: काय की हिंसा से पाप कर्म का बन्ध होता है और उससे आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है / अतः इस बात को भली-भांति जानने एवं हिंसा का त्याग करने वाला साधु, स्वयं 6 काय की हिंसा न करे, न दूसरे को हिंसा करने के लिए प्रेरित करे और न हिंसक के हिंसा कार्य का समर्थन करे / / . 'अप्पाण्ण' पद से आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को सिद्ध किया गया है अर्थात् यह बताया गया है कि आत्मा स्वयं कर्म का कर्ता है और वही आत्मा, स्वकृत कर्म के फल का भोक्ता भी है / और ‘परिणाय कम्मे' शब्द से संयम संपन्न मुनि के लिए बताया गया है कि- ज्ञ परिज्ञा से हिंसा के स्वरूप को जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका परित्याग करे। अर्थात् उक्त परिज्ञा शब्द से ज्ञान और क्रिया युक्त मार्ग को स्वीकार किया गया है / प्रस्तुत विषय पर हम पिछले उद्देशकों में विस्तार से बिचार कर चुके हैं / इस लिए वहां से जानिएगा। 'त्तिबेमि' अर्थ भी पूर्ववत् है / . // शस्त्रपरिज्ञायां सप्तमः उद्देशकः समाप्तः || प्रथमं अध्ययनं समाप्तम् % % %