Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 7 - 7 (62) 309 "यहां सूत्रकार कहतें हैं कि- यह दोनों ज्ञाननय एवं चरणनय परस्पर निरपेक्ष हो तब . मिथ्यात्व माना गया है... कहा भी है कि- क्रियाके अभावमें ज्ञान निरर्थक है, और ज्ञानके अभावमें क्रिया निरर्थक है जैसे कि- जलते हुए घरमें आंखवाला पंगु-लंगडा आदमी जल मरा, और दौडता (भागता) हुआ अंधा भी आगमें जलकर मर गया... इस प्रकार सभी नय परस्पर निरपेक्ष रहने पर मिथ्यात्व स्वरूप हि है, अतः सच्चा पदार्थ ज्ञान प्राप्त नहिं होता है, और समुदित सातों नय, कीसी भी पदार्थको जैसा है वैसा प्रतिपादन करते हैं, अतः वह सम्यक्तव कहा गया है... कहा भी है कि- सभी नय परस्पर निरपेक्ष रहकर अपनी बात कहते हैं तब मिथ्यात्व एवं अन्योन्य = परस्पर सापेक्ष रहकर बात करते हैं तब सम्यक्तव कहा गया है.. इसीलिये यह दोनो ज्ञान य एवं चरणनय जब परस्पर सापेक्ष रहकर बात करतें हैं तब हि आत्माका मोक्ष हो शकता है... किंतु अकेला ज्ञान या अकेली क्रियासे मोक्ष प्राप्त नहिं होता... यह बात निर्दोष है, अतः यह सापेक्षवाद (स्याद्वाद) पक्ष सत्य है... अब दोनों नयकी प्रधानता दिखलातें हैं... कि चारित्र एवं ज्ञान-गुणमें रहा हुआ जो साधु सभी नयोंकी अनेक प्रकारकी अपनी अपनी बातें सुनकर सापक्ष भावसे ज्ञाननय एवं चरणनयका आश्रय लेतें हैं... यहां "गुण' शब्दसे ज्ञानगुणका ग्रहण करना है, क्योंकि- गुणी-आत्मासे ज्ञान-गुण कभी भी अलग नहिं हो शकता... इसीलीये यह ज्ञान-गुण आत्माके साथ सदैव साथ हि रहनेवाला सहभावी गुण है... इसीलिये नयमार्गकी बहुत प्रकारकी बातें सुनकर संक्षेपसे ज्ञान एवं चारित्रमें रहना चाहिये... यह विद्वानोंका निश्चय है... क्योंकि- ज्ञानके अभावमें अकेले चारित्रसे अपने घरको जा रहे अंधे मनुष्यकी तरह अभिलषित मोक्षपदकी प्राप्ति नहिं हो शकती... और क्रियाके अभावमें केवल ज्ञान मात्रसे भी जलते हुए नगरके बीचमें रहे हुए आंखोवाले पंगु (लंगडे) पुरुषकी तरह इच्छित मोक्ष पदकी प्राप्ति नहि हो शकती... इसीलिये ज्ञान एवं क्रिया दोनों की हि मोक्षमार्गमें यथोचित मुख्यता रही हुइ है... जैसे कि- जलते हुए नगरमें रहे हुए अंध एवं पंगु मनुष्य दोनो मिलकर हि नगरकी आगसे बचकर नगरसे बहार निकल गये... इस प्रकार आचारांग सूत्रके सार स्वरूप छ जीवनिकायके स्वरूप एवं रक्षणके उपायको कहनेवाला तथा आदि मध्य एवं अंतमें एकांत हितकारक दया-रसवाला पहला यह अध्ययन, साधु जब सूत्रसे एवं अर्थसे हृदयमें धारण करता है और श्रद्धा तथा संवेग के साथ यथावत् आत्मसात् होता है, तब उस साधुको, निशीथ आदि छेद ग्रंथो में कहे गये क्रमसे सचित्त पृथ्वीकायके बीचमें गमन करने आदिसे, पृथ्वीकाय आदि जीवोंकी श्रद्धाकी परीक्षा करके