Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 359
________________ 300 // 1-1-7-4 (59) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्राशन वायुकाय-शस्त्रका आरंभ करते हैं, अन्योंके द्वारा वायुकायशस्त्रका आरंभ करवातें हैं, तथा अपने आप वायुकायशस्त्रका समारंभ करनेवाले अन्योंकी अनुमोदना करतें हैं किंतु यह उनके अहितके लिये एवं अबोधिके लिये होता है... जो साधु इस समारंभको जानता है वह संयमको स्वीकार करके और परमात्मा या साधुओंके मुखसे यह जानता है कि- यह समारंभ ग्रंथ है, मोह है, मार है एवं नरक है... इसी समारंभमें आसक्त लोक विविध प्रकारके शस्त्रोंसे वायुकर्मसमारंभके द्वारा वायुशस्त्रका समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकारके प्राणीओंकी हिंसा करतें हैं // 59 // V टीका-अनुवाद : यह सूत्र सुगम होने से यहां संस्कृत टीका नहिं है... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में उसी बात को दोहराया गया है, जिसका वर्णन पृथ्वीकाय, अप्काय आदि के प्रकरण में कर चुके हैं / अन्तर इतना ही है कि वहां पृथ्वी आदि का उल्लेख किया गया है, तो यहां वायुकाय का प्रकरण होने से वायुकाय का नामोल्लेख किया गया है। योग, प्राणायाम पद्धति से प्रस्तुत सूत्र का विवेचन करते हैं, तो यह सूत्र साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है / वायु से आरोग्य लाभ के साथ-साथ आत्मा, में अनेक शक्तियों एवं लब्धियों या सिद्धियों का प्रादर्भाव होता है / क्योंकि, मन एवं प्राण वायु का समान ही स्थान है / एक का निरोध करने पर दूसरे का सहज ही निरोध हो जाता है / इस अपेक्षा से वायु को व्यवस्थित करने से मन में एकाग्रता आती है / जिससे चिन्तन में गहराई एवं सूक्ष्मता आती है और फल स्वरूप ज्ञान का विकास होता है / और आत्मा धीरे-धीरे विकास की सीढ़ियों को पार करते-करते एक दिन शरीर, वचन और मन योग के निरोध के साथ-साथ प्राण वायु का भी सर्वथा निरोध करके सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है / चौदहवें गुणस्थान में पहुंच कर आत्मा त्रियोग के साथ 'आणपाण निरोहित्ता' अर्थात श्वासोच्छ्वास का भी सर्वथा निरोध कर लेता है / श्वासोच्छ्वास का संबन्ध योग के साथ है, क्योंकि शरीर में ही सांस का आवागमन होता है। और वाणी एवं मन का भी शरीर के साथ ही संबन्ध है / त्रियोग में शरीर सब से स्थूल है, वाणी उससे सूक्ष्म है, और मन सबसे सूक्ष्म है / इसी कारण चौदहवें गुणस्थान को स्पर्श करते ही आत्मा सर्व प्रथम मन का निरोध करता हैं, उसके बाद वाणी का और फिर शरीर का निरोध करके समस्त कर्म बन्धनों एवं कर्म जन्य साधनों से मुक्त होकर शुद्ध आत्म स्वरूप को प्रकट करता है / अस्तु चौदहवें गुणस्थान को स्पर्श करके सिद्धत्व को पाना ही साधना का एक मात्र उद्देश्य है और इसके लिए वायुका व्यवस्थित रूप से निरोध करना, लक्ष्य तक पहुंचने में सहायक होता है / इसकी साधना से साधक को अनेक लब्धिएं प्राप्त होती हैं / स्वरोदय शास्त्र का आविष्कार इसी वायु तत्त्व के आधार पर हुआ है / परन्तु, इन

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