Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 352
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-7-2 (57) 293 यह दोनो आतंक हि है, इस आतंक = पीडाको देखनेवाला मुनी यह जानता है किवायुकायके आरंभ की यदि निवृत्ति नहिं करुंगा तो यह आतंक मुझे भी हो शकता है... इस प्रकार वायुकायका समारंभ, आतंकका कारण है, इसलिये अहितकर है, ऐसा जानकर मुनी वायुकायके समारंभसे (निवृत्त होनेमें) निवर्त्तने में समर्थ होता है... अथवा तो द्रव्य और भाव भेदसे आतंकके दो प्रकार है... वहां द्रव्य आतंकके विषयमें यह उदाहरण है... जंबूद्वीप नामके द्वीपके भरत-क्षेत्रमें नगरके सभी गुणोसे समृद्ध राजगृह नामका नगर है... उस नगरमें गर्विष्ठ दुश्मनोंका मर्दन करनेवाला, भुवनमें फैले हुए प्रतापवाला और जीवाजीवादि तत्त्वको जाननेवाला जितशत्रु नामका राजा है... निरंतर संवेग रससे भावित अंतःकरणवाले इस राजाने एक बार धर्मघोष आचार्यके पास एक प्रमादी साधको देखा... मनाइ करने पर भी बार बार अपराध करनेवाले उस प्रमादी साधु के हितके लिये और अन्य सभी साधुओंकी रक्षाके लिये आचार्यदेवकी अनुज्ञा = रजा लेकर राजाने अपने पुरुषोंके द्वारा, तेजाब आदि तीव्र और उत्कट द्रव्योंसे भरे हुए गड्ढे में क्षार डलवाया... और उसमें एक मनुष्यको डाला (फेंका), अब गोदोह मात्र समय (दो घडी) में मांस एवं रुधिर शीर्ण-विशीर्ण हुआ, मात्र हड्डी रह गइ, तब पूर्व संकेत अनुसार राजाकी आज्ञासे दो पुरुष वहां लाये गये, एक गृहस्थ वेषमें और दूसरा पाखंडी (साधु) वेषमें... पूर्वसे हि सिखाये हुए उन पुरुषोंको राजाने पुछा कि- इनका क्या अपराध है ? सिपाइ पुरुषोने कहा- आज्ञाका उल्लंघन करते हैं... यह पाखंडी कहे गये अपने आचारोंमें नहिं रहते... तब राजाने आदेश दिया कि- "क्षारमें फेंकीये...” क्षारमें फेंकनेसे गोदोह मात्र समयमें उन पुरुषोंका अस्थि मात्र हाडपिंजरको देखकर जुठे रोष से लाल आंखवाला राजा, शैक्ष = नव दीक्षित प्रमादी साधु को ध्यान (मन) में रखते हुए राजाने आचार्यको कहा कि- आपके यहां कोई प्रमादी हो तो मैं उन्हे शिक्षा दूं... तब गुरुजी बोले कि- ना, कोइ प्रमादी नहिं है... यदि कोई होगा तब कहेंगे...हां ! तब आप हमे कहियेगा... जैसा कह कर जब राजा गये तब शैक्ष-साधुने आचार्यको कहा कि- अब मैं प्रमाद नहिं करुंगा... मैं आपके शरण आया हुं... यदि श्रद्धा-भावसे रहित ऐसा मेरा कोई प्रमाद हो तब गुणोसे सुविहित हे आचार्यदेव! आप मुझे शिक्षा दीजीयेगा... आतंक भयसे उद्विग्न वह शैक्ष-साधु अब सदैव हि संयममें उद्युक्त हुआ... बुद्धिशाली राजाने कुछ समय बाद,आचार्यजी के साथ बात-विचारणा कर, अपने मनके जो भाव था, वह सभी साधुओके समक्ष आचार्यजी को कहा और क्षमा-याचना की. इस प्रकार यहां सारांश यह है कि- द्रव्य आतंक (पीडा) को देखनेवाला मनुष्य अपने आत्माको पापारंभसे निवृत्त करता है, जिस प्रकार- धर्मघोष आचार्यका शिष्य.. भाव-आतंकदर्शी साधु नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव जन्ममें होनेवाले प्रियका वियोग,

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