Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 353
________________ 294 1 - 1 - 7 - 2 (57) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि शारीरिक, मानसिक आतंक (पीडा) के भयसे वायुकायके आरंभमें प्रवृत्त नहि होता है... किंतु यह वायुकायका समारंभ अहितकर है ऐसा मानकर आरंभ-समारंभका त्याग करता है... इसीलिये कहा है कि- आतंकदर्शी मुनि विमल-विवेकसे वायुकायके समारंभकी जुगुप्सा (त्याग) में समर्थ होता है... हित की प्राप्ति एवं अहितके परिहारवाले अनुष्ठानकी प्रवृत्तिमें अन्य मुनीकी तरह यह मुनी भी समर्थ होता है... अब वायुकायके समारंभकी निवृत्तिका कारण कहतें हैं... जो मुनी आत्माके सुखदुःखोंको जानता है वह मुनी बहारके वायुकाय आदि प्राणीओंको भी जानता है... वह इस प्रकारयह सुखको चाहनेवाला जीव दुःखसे उद्वेग पाता (उभगता) है, जिस प्रकार- मुझे असाताकर्मोके उदयसे आया हुआ अशुभ फल स्वरूप दुःख कि- जो स्पष्ट अनुभव सिद्धि है... इस प्रकार जो साता-वेदनीय कर्मोके उदयसे अपने आत्मामें सुख स्वरूप शुभफलको जानता है वह हि अध्यात्मको जानता है, इसी प्रकार जो अध्यात्मको जानता है, वह हि बहार रहे हुए . ' वायुकाय आदि प्राणीओंके विविध प्रकारके कर्मोसे उत्पन्न हुए अपने से या अन्यसे उत्पन्न हुए, शारीरिक एवं मानसिक सुख या दुःखको जानता है... अपने में जो प्रत्यक्ष होता है, वह अन्यमें अनुमान से जाना जाता है... जिस किसीको अपने आत्मामें हि ऐसा विज्ञान नहि है, वह बहार रहे हुए वायुकायादिके सुख-दुःखोंको कैसे जानेगा ? जो बहारको जानता है वह हि यथावत् अध्यात्मको जानता है... क्योंकि- यह सिद्धांत परस्पर एक समान हि सिद्ध है... अन्यके और आत्माके परिज्ञानसे अब क्या करना चाहिये ? यह बात अब कहतें हैंइस तुलनाको उपर कहे गये लक्षणोसे ढुंढीयेगा... वह तुलना यह है- जिस प्रकार अपने आपको आप सुखके साथ सुरक्षित रखते है, बस ! इसी प्रकार अन्य जीवोंकी भी रक्षा करो... और जिस प्रकार अन्यको सुरक्षित रखो, उसी प्रकार अपनेको भी सुरक्षित रखो... इस प्रकारकी तुलना याने स्व-पर सुख-दुःखके अनुभवको समझीयेगा... कहा भी है कि- काष्ठ या कांटे पाउंमें चुभने से जैसी वेदना होती है इसी प्रकार सभी जीवोंको वेदना-पीडा होती है... ऐसा समझो... “मैं मरुंगा'' ऐसा सुननेसे पुरुषको जैसा दुःख होता है, वैसा हि दुःख अन्य जीवोंको भी होता है... अतः अन्य जीवोंका रक्षण करनेके लिये प्रयत्न कीजीयेगा... इस कारणसे जिस प्रकार कही गइ तुलनासे जिन्होंने अपने और परायेकी (स्व-परकी) तुलना की है ऐसे मनुष्य हि स्थावर एवं जंगम (स्थावर एवं प्रस) जीवोंके समूहकी रक्षा के ' लिये प्रवृत्त होतें हैं... यह बात अब, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे .

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