Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 356
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-१-७-3(५८)卐 297 %3 क्रियानुष्ठानका ज्ञान हि नहिं है... ऐसी परिस्थिति में क्या होता है वह बात, अब सुत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... VI सूत्रसार : यह हम सदा देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक प्राणी को, जीवन प्रिय है / और प्रत्येक व्यक्ति जीवन को अधिक से अधिक समय तक बनाए रखने की इच्छा रखता है और इसके लिए वह हर प्रकार का कार्य कर गुज़रता है / आज दुनिया में चलने वाले छलकपट, झूठ, फरेब, हिंसा, चोरी आदि पाप कार्य इस क्षणिक जीवन के लिए ही तो किए जाते हैं / इसके लिए प्रमादी व्यक्ति, बड़ा पाप एवं जघन्य कार्य करते हुए नहीं हिचकिचाता है / एक और जीवन का यह पहलू है, तो दूसरी और जिन साधुओं के जीवन में ज्ञान का प्रकाश जगमगा रहा है. दया का, अहिंसा का शीतल झरना बह रहा है, वहां जीवन का दूसरा चित्र भी है / या यों कहना चाहिए कि एक और जहां अपने जीवन के लिए, अपने वैषयिक सुखों के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा की जाती है, वहां दूसरी और साधक मनुष्य वायुकायिक आदि जीवों की रक्षा के लिए तत्पर रहता है और यहां तक कि उनकी रक्षा के लिए अपने प्राण तक दे देता है, परन्तु अपने जीवन के लिए वायुकाय आदि किसी भी प्राणी कि हिंसा नहीं करता / दया, रक्षा एवं अहिंसा की यह पराकाष्ठा जैन शासन में ही है, अन्यत्र नहीं / 'इह' शब्द दया एवं अहिंसा प्रधान जैनधर्म का परिबोधक है / 'संतिगयः' शब्द १-प्रशम, २-संवेग; 3-निर्वेद, ४-अनुकम्पा और ५-आस्तिक्य को अभिव्यक्त करने वाले सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है और सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र का समन्वय ही मोक्ष रूप पूर्ण आनन्द या शान्ति का मूल कारण है, इसलिए इस आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम को शान्ति कहा है / ऐसे शांत या मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधक को 'संतिगया-शांतिगताः' कहा 'दविया-द्रविका' का अर्थ है- 'द्रविका नाम रागद्वेषविनिर्मुक्ताः ' अर्थात् राग-द्वेष से मुक्त भव्य आत्मा को द्रविक कहते हैं / 17 प्रकार के संयम का नाम द्रव है / क्योंकि, संयम साधना से कर्म की कठोरता को द्रवीभूत कर दिया जाता है, इसलिए संयम को द्रव कहा गया है और उक्त संयम को स्वीकार करने वाले मुमुक्षु पुरुष को द्रविक कहते हैं / इस तरह प्रस्तुत सूत्र का अर्थ हुआ- सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना से परम शांति को प्राप्त महापुरुष वायुकायिक जीवों की हिंसा करके अपने जीवन को टिकाए रखने की आकांक्षा नहीं रखते / तात्पर्य यह निकला कि उन्हें अपने जीवन की अपेक्षा दूसरे

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