Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-1 - 5 -2 (41) 239 - यहां कुमतवाले प्रश्न करतें हैं कि- जो कोइ शब्दादि गुणों मे प्रवृत्त होता है, वह प्राणी आवर्त याने संसारमें भटकता है, किन्तु जो जीव संसारमें रहते हैं वे सभी शब्दादि गुणोंमें निश्चय प्रकारसे प्रवृत्त होते हि है, ऐसा नियम नहीं है... जैसे कि- जिनमत के साधु, संसारमें अर्थात् शरीरको धारण किये हुए होते हैं, तो हि वे शब्दादि गुणोमें प्रवृत्त नहीं होते... यह कैसे हो ? .. उत्तर- यह बात सही है, साधु संसार-आवर्तमें होतें हैं किंतु शब्दादि गुणोंमें प्रवृत्त नहिं होतें... क्योंकि- यहां राग-द्वेषके साथ शब्दादि गुणोंमें प्रवृत्त होनेका अधिकार है... और ऐसी राग-द्वेषके साथ शब्दादि गुणोंमें प्रवृत्ति साधुओंको नहिं होती... क्योंकि- उन्हे राग-द्वेषका अभाव होता है... इसीलिये दुःखवाले संसार रूप आवर्तमें परिभ्रमणा भी नहिं होती... जिनमतके साधुओंको सामान्यसे संसार-विश्वमें रहनेका, एवं सामान्यसे शब्दादि गुणोंकी प्राप्ति भी होती है, अतः प्राप्तिका निषेध हम नहिं करते किंतु उनमें होनेवाले राग एवं द्वेषका निषेध करतें हैं... कहा भी है कि- आंखकी नजरमें आये हुए रूपको देखना नहि टाल शकतें किंतु उन रूपमें होनेवाले राग-द्वेषको प्राज्ञ पुरुष अवश्य टाले... वनस्पतिमें शब्दादि बहोत सारे गुण होते हैं... वे इस प्रकार(१) शब्द- वेणु, वीणा, पटह, मुकुंद आदि वाजिंत्रोंकी उत्पत्ति वनस्पतिसे होती है, और उनसे मनोहर शब्द उत्पन्न होते हैं... यहां वनस्पतिकी प्रधानता है, क्योंकिवनस्पतिसे बनी हुइ वीणामें भी तंत्री, चमडा और हाथ आदिके संयोगसे हि शब्द निकलता है... * (2) रूप- काष्ठसे बनी हुइ स्त्रीकी प्रतिमा आदिमें... घरके तोरण, वेदिका एवं थंभे आदिमें आंखोको देखनेकी इच्छा हो, ऐसा रूप होता है... गंध- कपूर, पाटला, लवली, लवंग, केतकी, सरस, चंदन, अगरु, कक्कोलक, इलायची, जायफल, तेजपत्ते, केशर, मांसी (कंकाल वनस्पति) की छाल, पत्ते आदिकी सुगंध नासिकाको मुग्ध करती है... रस - बिस, मृणाल, मूल, कंद, पुष्प, पत्ते, कंटक, मंजरी, छाल, अंकुर, किसलय, अरविंदकेसर आदि रसनेंद्रिय (जिह्वा) को आनंद देतें हैं = मोह-मुग्ध बनातें हैं... (5) स्पर्श = पद्मिनीके पत्ते, कमलकी पांखडी, मृणाल, वल्कल, दुकुल, शाटक, ओशिका, रुइ, बिछाने (ढांकने) के कपडे आदि स्पर्शेद्रियके विषय सुखोंको प्रगट करतें हैं... (4) इस प्रकार वनस्पतिसे उत्पन्न हुए शब्द आदि गुणोंमें जो मनुष्य प्रवृत्त होता है वह आवर्त याने संसारमें भटकता रहता है... और जो आवर्तमें होता है वह राग-द्वेषवाला होनेसे