Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 5 - 1 (40) 237 बढ़ाता है / वनस्पतिकाय का आरम्भ दुःख की परम्परा में अभिवृद्धि करने वाला है / इस बात को बताते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट कर दिया है कि जो बुद्धिमान पुरूष वनस्पतिकाय के आरंभसमारंभ को तथा जीवाजीव आदि तत्त्वों का परिज्ञान करके संयम मार्ग पर गति करता है, वही वनस्पतिकाय के आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त होता है और वही व्यक्ति दुःख परम्परा का या यों कहिए कर्म बीज का सर्वथा उन्मूलन कर देता है / प्रस्तुत सूत्र ज्ञान और चारित्राचार के समन्वय का आदर्श लिए हुए है / यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि चारित्र का मूल्य ज्ञान के साथ है / सम्यग् ज्ञान के अभाव में की जाने वाली क्रिया एवं तप-जप का आध्यात्मिक विकास या मोक्ष मार्ग की दृष्टि से कोई विशेष मूल्य नहीं है / और यही कारण है कि प्रशंसा एवं भौतिक सुख पाने की इच्छा-आकांक्षा से अज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया एवं जप-तप, तथा बिना आकांक्षा के सम्यग् ज्ञान पूर्वक आचरित त्याग-तप के सोलहवें अंश के बारबर भी नहीं है / इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार वे 'तं णो करिस्सामि' के साथ 'मत्ता' पद का उल्लेख किया / इससे स्पष्ट हो जाता है कि आचार में ज्ञान के कारण से ही तेजस्विता आती है, चमक बढ़ती है / अस्तु ज्ञान और क्रिया याने आचार एवं विचार का समन्वय ही मोक्ष मार्ग है, अपवर्ग की राह है। __ज्ञानपूर्वक किए जाने वाले त्याग को ही त्याग कहने के पीछे एक मात्र यही उद्देश्य रहा हुआ है कि जब तक व्यक्ति वस्तु के हेय-उपादेय स्वरूप को भली-भांति नहीं जान लेता है, तब तक वह उसका परित्याग या स्वीकार नहीं कर पाता और कभी भावावेश या किसी प्रलोभन में आकर त्याग कर भी देता है, तो उसका सम्यक्तया परिपालन नहीं कर पाता / क्योंकि उसके गुण-दोष एवं स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण वह अपने लक्ष्य से च्युत हो जाता है, भटक जाता है / अस्तु त्याग के पूर्व जीवाजीव का ज्ञान होना ज़रूरी है / यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है / इसके अतिरिक्त यह भी बताया गया है कि वनस्पति जीवों के आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त एवं पूर्ण त्यागी मुनि, जिन-मार्ग में ही उपलब्ध होते हैं, यह बात “तत्थोवरएएतस्मिन्नुपरतः" घद से अभिव्यक्त की है / टीकाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-“एतस्मिन्नेव जैनेन्द्र प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनेतर संप्रदाय के साधु-मुनि त्यागी होते ही नहीं / हम इस बात को मानते हैं कि धन, वैभव एवं गृहस्थी के त्यागी सन्त साधु जैनेतर संप्रदायों में भी मिलते हैं / और प्रायः सभी सम्प्रदायों के धर्म-ग्रन्थों में त्याग प्रधान मुनि जीवन का विधान भी मिलता है / परन्तु आरम्भ-समारम्भ के कार्यों से जितनी निवृत्ति एवं त्याग जिन-मार्ग पर गतिशील मुनियों में पाया जाता है, उतना