Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 236 1 - 1 - 5 - 1 (40) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रक. शन इस प्रकार जो साधु सम्यग् ज्ञानसे जीवोंको तथा उनकी होनेवाली हिंसाको जानकर निवत्ति करता है, वह हि साध सभी आरंभोसे निवत्त होता है यह बात अब कहतें हैं... यहां कहा कि- वनस्पतिके सभी आरंभोंसे निवृत्त साधु, जीव आदि पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ रूपसे जानकर, आरंभ नहिं करता है, तो प्रश्न यह है कि- क्या शाक्य आदि मतमें यह बात संभव है कि मात्र जिन-प्रवचनमें हि ? उत्तर- मात्र जिन प्रवचनमें हि वास्तविक आरंभकी निवृत्ति है, अन्यत्र शाक्य आदि मतवालोंमें नहिं... प्रतिज्ञाके अनुसार निर्दोष अनुष्ठान करनेवाले जिनमतके साधु हि आरंभसे निवृत्त होते हैं, अन्य शाक्य आदि साधु तो विपरीत आचरणवाले हैं, अतः उनको आरंभसे निवृत्ति नहिं होती... जिनमतके साधु हि संपूर्ण अणगार पदको धारण करते हैं... इस सूत्रके अर्थक अनुसार रहे हुए और जिनको अगार घर नहिं हैं वे हि अणगार कहे गये हैं... अणगार पदके कारणभूत सभी गुणोंके समूहको धारण करनेवालोंमें हि अणगारका लक्षण घटित होता है... अन्य शाक्य आदि मतवालोंमें नहि... वास्तविक अणगारके गुणोंसे रहित शाक्य आदि मतवाले शब्द आदि पांचों इंद्रियोंके विषय-सुखमें प्रवृत्त होकर वनस्पतिकाय-जीवोंकी हिंसा करतें हैं... क्योंकि- वनस्पतिसे हि बहोत सारे शब्दादि इंद्रियोंके विषय-गुण प्राप्त होतें हैं... और शब्दादि गुणोमें हि प्रवृत्त होनेवाले लोग, राग एवं द्वेष स्वरूप विषम विष (जहर) से व्याकुल होकर मूर्छित होतें हैं, और नरक आदि चारों गतिमें जन्म-मरण करते रहते हैं, और नरक आदि चारों गतिमें घूमनेवाले जीव हि शब्दादि विषयोंको चाहतें हैं... - इसी अर्थकी स्पष्टताके लिये गत-प्रत्यागत (उलटी-सुलटी) प्रकारके सूत्रसे अब, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : प्राणी अनन्त काल से मोह एवं वासना के घोर अन्धकार में भटकता रहा है / अनेक तरह से विषयेच्छा को पूरी करने का प्रयत्न करने पर भी उसकी इच्छा की तप्ति नहीं हो पाती / तृष्णा की भूख नहीं बुझती / यों कहना चाहिए कि उसकी तृष्णा; आकांक्षा एवं वासना की क्षुधा, तृप्त होने के स्थान में प्रतिपल बढ़ती है और वह भोगेच्छा के वश होकर अनेक तरह से वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है / अपने विलास एवं सुख के लिए रातदिन विभिन्न प्रकार की हरितकाय शाक-सब्जी एवं फल-फलों के जीवों के आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहता है / इस तरह प्रमाद एवं मोह के वश में हुआ प्राणी वनस्पति काय की हिंसा करके कर्मों का बन्ध करता है / और फल स्वरूप दुःख एवं जन्म-मरण की परम्परा को