Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 5 - 3 (42) 243 / अतः वनस्पति के प्रकरण में उसका वर्णन ऊचित एवं प्रासंगिक ही है / अब प्रश्न यह उठता है कि संसार परिभ्रमण के कारण भूत यह शब्दादि विषय किसी एक नियत दिशा में उत्पन्न होते हैं या सभी दिशाओं में उत्पन्न होते हैं ? उक्त प्रश्न का समाधान सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रमें करेंगे... I सूत्र // 3 // // 42 // उड्डे अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रुवाइं पासइ, सुणमाणे सद्दाइं सुणेति, उड्ढं अहं पाईणं मुच्छमाणे सवेसु मुच्छाति, सद्देसु यावि // 42 // II संस्कृत-छाया : ऊर्ध्वं अधः तिर्यक् प्राचीनं पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शब्दान् शृणोति, ऊर्ध्वं अधः प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चाऽपि // 42 // III शब्दार्थ : उड्ढे-ऊर्ध्व-ऊंची दिशा / अहं-नीची दिशा / तिरियं-तिर्यक् दिशा चारों दिशा-विदिशाएं इनमें तथा / पाईणं-पूर्वादि दिशाओं में / पासमाणे-देखता हुआ / रुवाइं-रूपों को / पासतिदेखता है, और / सुणमाणे-सुनता हुआ / सदाई-शब्दों को / सुणेति-सुनता है, तथा / उड्ढऊंची दिशा / अहं-नीची दिशा में / पाईणं-पूर्वादि दिशाओं में / मुच्छमाणे-मूर्छित होता हुआ। रूवेसु-रूपों में / मुच्छति-मूर्छित होता है / च-और / सद्देसु-शब्दों में मूर्छित होता हैं / आविसंभावना या समुच्चयार्थ में है, इससे गन्ध, रस, स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण किया जाता IV सूत्रार्थ : उपर, नीचे, तिरछा पूर्व आदि दिशाओंमें रूपको देखता है, शब्दोंको सुनरहा हुआ वह, शब्दोंको सुनता है, उपर, नीचे पूर्व आदि दिशाओंमें मूर्छा को पाता हुआ रूपमें मूर्छा पाता है, और शब्दोंमें भी मूर्छा पाता है // 42 // v टीका-अनुवाद : प्रज्ञापक-दिशाकी अपेक्षासे दिशाओंमें रहे हुए रूप-गुणको देखता है... 1. उपर - २.नीचे महल एवं हवेली - भवनके उपर रहे हुए रूपको देखता है... पर्वतके शिखर एवं महलके उपरकी मंझील पर रहा हुआ मनुष्य भूमि तल उपर रहे हुए रूपको देखता है...